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________________ लगीं। मार्गद्रष्टा ब्राह्मण के अभाव में अवसर देख कर दैत्यों ने देवों पर आक्रमण कर दिया । देवगण ब्रह्मा के पास गए तो उन्होंने सलाह दी कि त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना पुरोहित बना लो । विश्वरूप के दिशानिर्देशन में इन्द्र की दैत्यों पर विजय हुई | दैत्यों पर विजय के उपलक्ष्य में इन्द्र ने एक बड़े यज्ञ का अनुष्ठान किया । इस यज्ञ के आचार्य विश्वरूप ही थे । विश्वरूप जब यज्ञ में आहुतियां देते थे तो चुपचाप आंख बचाकर दैत्यों की आहुतियां भी दे दिया करते थे। यह रहस्य इन्द्र को ज्ञात हो गया । उसने विश्व रूप के तीनों सिर काट दिए। उनके तीन सिर थे । विश्वरूप के पिता त्वष्टा इन्द्र पर बहुत रूष्ट हुए। उन्होंने एक यज्ञ करके वृत्रासुर को पैदा किया । दुर्जेय असुर वृत्र ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और इन्द्र को ललकारा । इन्द्र वृत्रासुर के समक्ष ठहर नहीं पाया और भयभीत होकर ब्रह्मा के पास पहुंचा । उसने ब्रह्मा से स्वर्ग - रक्षा और आत्मरक्षा के लिए निवेदन किया । "" ब्रह्मा ने कहा- देवराज! वृत्रासुर को मारने की एक ही युक्ति है | महर्षि दधीचि यदि अपनी हड्डियां तुम्हें दे दें तो उन हड्डियों का वज्र बनाओ। उस अस्थि वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है ।" इन्द्र महर्षि दधीचि के पास पहुंचे और उन्हें अपनी विवशता दर्शाते हुए उनकी हड्डियों का दान मांगा। जीते जी अपनी हड्डियों का भला कौन दान दे सकता है? परन्तु दधीचि ने परहित के लिए अपनी देह का दान करना स्वीकार कर लिया। समस्त देवों एवं इन्द्र की प्रार्थना पर दधीचि मुनि का कथन था - करोमि यद् वो हितमद्य देवाः । स्वं चापि देहं स्वयमुत्सृजनामि ॥ ( महाभारत, 3 / 100/21) अर्थात् हे देवों! चूंकि आप सभी के कल्याण व हित की यह बात है, इसलिए मैं अपने देह को भी स्वयं विसर्जित कर रहा हूं । इन्द्र की प्रार्थना पर दधीचि ने अपनी देह को नमक में गला कर उसकी त्वचा अलग करके हड्डियां इन्द्र को दे दीं। उन से बने वज्र से वृत्रासुर मारा गया | महर्षि दधीचि इस महान् कार्य के लिए आज भी अमर हैं । [ द्रष्टव्यः महाभारत, वनपर्व, 100 अध्याय ] द्वितीय खण्ड/305
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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