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राजाज्ञा को क्रियान्विति मिली । वधिकों ने मुनि का अनुगमन
किया और उन्हें बन्धनों में जकड़ लिया। इस क्षण भी मुनि सौम्य और शान्त थे । उन्होंने न तो वधिकों का विरोध किया और न ही यह प्रश्न किया कि उनका अपराध क्या है। मुनि जानते थे कि ऐसे क्षण मुनिचर्या के अभिन्न अंग होते हैं।
वधिक मुनि को वधस्थल पर ले गए। मृत्यु परिषह को सम्मुख देखकर भी मुनि मौन और सम थे । उन्होंने संलेखना संथारा धारण कर लिया । वधिकों की तलवारें मुनि की देह की चमड़ी छीलने लगीं। आत्मानन्द में लीन मुनि के मुख से एक भी आह न फूटी । वधिक कांप उठे । हत्यारों की भी आंखें बह चलीं । समय मौन साधकर एक महासाधक की महासाधना का महासंग्राम देख रहा था । रक्त देह से निचुड़ गया । मौनशान्त - आत्मलीन मुनि की आत्मा ने देह छोड़ दी ।
पश्चात् सभी को सत्य घटना ज्ञात हुई । सुनन्दा का प्राण-प्राण हाहाकार से भर गया । राजा पुरुषसिंह अनन्त पश्चात्ताप का शिकार बना । एक धर्मप्राण मुनि के आत्मोत्सर्ग का यह कथानक हजारहजार वर्ष के पश्चात् भी नित नूतन है । बलिदान कभी पुराना नहीं पड़ सकता। चाहे वह देश के लिए हो या धर्म के लिए | परमार्थ की सिद्धि के हेतु महामुनि स्कंधक का यह बलिदान सदा वन्द्य है । स्मरणीय है । अर्चनीय है । [ उत्तराध्ययन- टीका से ]
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[२] महर्षि दधीचि (वैदिक)
दधीचि ऋषि ने निःस्वार्थ भाव से देवों की रक्षा के लिए आत्मबलिदान दिया था । उन्होंने अपनी अस्थियों को देवराज इन्द्र को दान में दिया था | स्वपीड़ा को भुलाकर परार्थ के लिए आत्मबलिदान की यह गाथा भी रोमाञ्चकारी है ।
गर्वोन्मत्त इन्द्र ने एक बार देवों के गुरु बृहस्पति का अपमान कर दिया। देवगुरु रूठ कर अन्यत्र चले गए । देवकार्यों में बाधाएं आने
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 304