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द्वितीय संतान - पुत्री का नाम सुनन्दा रखा । यथासमय राजकुमार और राजकुमारी युवा हुए। बहन के हृदय में भ्रातृप्रेम और भाई के हृदय में भगिनी प्रेम पराकाष्ठा पर था ।
राजा कनककेतु ने अपनी पुत्री सुनन्दा के लिए कांचीनगर के राजा पुरुषसिंह को वर रूप में चुना । यथासमय शुभ मुहूर्त्त में पाणिग्रहण समारोह सम्पन्न हुआ । अश्रुओं के मध्य बहन भाई का विरह हुआ । सुनन्दा कांचीनगर पहुंचकर अपने पति पुरुषसिंह के साथ सुखपूर्वक रहने लगी । वैराग्यचेता स्कंधक बहन के विरह से और अधिक विरक्त रहने लगे। श्रावस्ती नगरी में एक बार आचार्य मुनि विजयसेन पधारे । उनकी धर्म-देशना सुनकर स्कंधक कुमार का वैराग्य पुष्पित हो उठा और उन्होंने साधु बनने का निश्चय कर लिया। भाई के दीक्षा समारोह में सुनन्दा भी सम्मिलित हुई । स्कंधक मुनि बनकर विचरने लगे । क्लिष्ट संयम - साधना और कठोर तप के कारण अल्प समय में ही उनकी देह का रक्त और मांस अत्यल्प रह गया। कुछ सैनिक गुप्त रूप से मुनि स्कंधक के साथ रहते थे और उनकी कुशल-क्षेम की सूचना राजा कनककेतु को पहुंचाते थे। मुनि तन-मन प्राण से स्वतंत्र होता है। उसका कुछ नहीं होता । न वह किसी का कुछ होता है, न कोई उसका कुछ । बस्ती और जंगल, धूप और छांव तथा क्षुधा और तृप्ति उसके लिए समान होते हैं । समानता का यही साम्यभाव उसके भीतर के मुनित्व का जनक होता है ।
ज्येष्ठ मास की दोपहर ! कांचीनगर का राजमार्ग था तवे सा तप्त | उस पर बिखरे सिकता - कण जलते हुए कोयले के समान जल रहे थे । ऐसे में कृशकाय एक मुनि नग्न पैरों से अनन्त समता रस में डूबा राजमार्ग पर बढ़ रहा था। सहसा महल के झरोखे से रानी सुनन्दा की दृष्टि मुनि पर पड़ी। इस रूप में वह अपने भाई को पहचान न पाई । उसे विचार आया कि उसका भाई भी ऐसे ही कहीं विहार कर रहा होगा । कितनी कठिन है श्रमणसाधना ! सुनन्दा विह्वल हो उठी। उसकी आंखों में आंसू आ गए। पुरुषसिंह ने रानी की आंखों में आंसू देखे और राजमार्ग पर बढ़ते मुनि को देखा । पुरुष - हृदय शंकाग्रस्त हो उठा। एकाएक उसके मन ने यह निर्णय कर लिया कि वह मुनि रानी का कोई पुराना प्रेमी है ।
पुरुषसिंह महल से नीचे उतरा। उसने वधिकों को आदेश दिया कि सामने जा रहे मुनि को पकड़कर उसकी चमड़ी खींच ली जाए ।
द्वितीय खण्ड 303