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अर्थात् प्राणियों को अभय-दान दो, सभी के साथ ऐसी मैत्री करो जो निन्दा की पात्र न हो। इस समस्त चर-अचर जीव-लोक को आत्मवत् देखो, समझो। वस्तुतः जैन-धर्म व दर्शन का सार ही यह है कि अपने जैसा दूसरों को देखना, जो स्वयं को सुखकर लगे वैसा ही बर्ताव दूसरों से करना, जो स्वयं को दुःखप्रद प्रतीत हो, वैसा बर्ताव दूसरों से न करना-जं इच्छसि अप्पणतो, तं इच्छ परस्स वि (बृहत्कल्पभाष्य, 4584)। अर्थात् जैसा व्यवहार तुम दूसरों से चाहते हो, वैसा ही व्यवहार दूसरों से करो। यही जैन-शासन का सार है। आपत्ति या संकट के समय जिस प्रकार तुम चाहते हो कि तुम्हें कोई आकर उस संकट से छुड़ाए और रक्षा करे, उसी तरह तुम भी जब किसी को संकट-ग्रस्त देखो, तब उसे संकट से बचाना तुम्हारा कर्तव्य बनता है- आवत्तीए जहा अप्पं रक्खंति, तहा अण्णोवि आवत्तीए रक्खियब्यो (निशीथचूर्णि-5942)। दूसरों को संकट से उबारने के लिए स्वयं को संकट में डालने का यह जैन-उपदेश सचमुच सभी के लिए क्रियान्वित करना कठिन है, विरले ही इस वीरतपूर्ण कार्य को कर पाते हैं। इसी दृष्टि से आचारांग सूत्र में कहा गया है- पणया वीरा महावीहिं (आचारांग सूत्र-1/ 1/3)। अर्थात् वीर पुरुष ही इस महान् साधना-मार्ग पर चल पाते हैं। साथ ही यह भी कहा गया है कि दुरनचरो मग्गो वीराणं (आचारांग सूत्र-1/4/ 4) अर्थात् वीरों के इस मार्ग पर चलना कठिन है। वस्तुतः आत्मबलिदान अनन्त साहस का परिचायक है। अनन्तशौर्यसम्पन्न पुरुष ही सहर्ष अपने प्राणों को दांव पर लगा सकता है। इसीलिए कहावत है- कायर कदमकदम पर मरता है और शूरवीर एक ही बार मरता है। उसकी एक ही बार की मृत्यु महामहोत्सव बन जाती है। उपर्युक्त सन्दर्भ में जैन व वैदिक संस्कृतियों की एकस्वरता के निदर्शक कुछ कथानक यहां प्रस्तुत हैं
[१] स्कंधक मुनि
(गैन) श्रावस्ती नगरी में राजा कनककेतु राज्य करते थे। उनकी पट्टमहिषी का नाम मलयसुन्दरी था। मलयसुन्दरी ने क्रमशः दो सन्तानों को जन्म दिया। प्रथम सन्तान-पुत्र का नाम स्कंधक कुमार रखा गया तथा
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/302)