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क्योंकि लोगों के लिए तो वह क्रूर ही सिद्ध हो रहा है। आध्यात्मिक स्तर पर तो देह पूर्णतः नगण्य हो जाता है, मात्र आत्म-तत्त्व ही उपादेय होता है। किन्तु सामान्य स्तर के लोग- इस दृष्टि को अपना नहीं पाते।।
क्षुद्रमानस-मानव की दृष्टि जाति और देह तक ही सीमित रह जाती है। जाति और देह की परिक्रमाओं में ही उसकी बुद्धि आबद्ध रहती हैं। उसे सत्य का रसतत्त्व उपलब्ध नहीं हो पाता। सत्यद्रष्टा के लिए जाति और देह निर्मूल्य हैं । देही अर्थात् आत्मा ही उसके लिए अमूल्य है- महामूल्यवान् है।
आत्मतत्त्व को पहचानने वाले चाण्डालकुलोत्पन्न तथा कुरूप देहवाले ‘हरिकेशबल' और टेढ़े-मेढ़े शरीर वाले 'अष्टावक्र ऋषि' क्रमशः जैन और वैदिक धाराओं के दो महान् साधक हैं। उनमें अन्तर्निहित आत्मज्योति निर्धम थी।दोनों में पर्याप्त साम्यता है जो भारतीय संस्कृति की दोनों धाराओं- जैन व वैदिक में अन्तर्निहित. एकस्वरता की परिचायक है।
द्वितीय रवगड 299