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__ "मैं गलत स्थान पर आने के कारण हंसा हूं।" अष्टावक्र ने गंभीरता से कहा- “मैं चमारों की सभा में आ गया हूं। मैंने तो इसे विद्वानों की सभा समझा था।"
___ "तुम सही स्थान पर आए हो।' जनक बोले- “यह चमारों की सभा नहीं है, विद्वानों की सभा ही है।"
"जो देही को न देखकर मात्र देह की पहचान करते हैं, जिनकी दृष्टि चमड़ी तक ही सीमित रह जाती है वे विद्वान् नहीं हो सकते हैं।' अष्टावक्र बोले-"चमड़े के परीक्षक तो चमार ही होते हैं, राजन्।'
अष्टावक्र की सटीक बात ने जनक पर चमत्कार किया। वे सिंहासन से उठ खड़े हुए और अष्टावक्र को ससम्मान उचित आसन प्रदान किया अष्टावक्र ने उस विद्वान् को शास्त्रार्थ में पराजित करके अपने पिता सहित सभी विद्वानों को कारागृह से मुक्त करा दिया।
अष्टावक्र की विद्वत्ता और अत्मज्ञान का राजा जनक सहित समस्त विद्वानों ने लोहा माना । वर्तमान में भी उन द्वारा आख्यायित तत्त्वज्ञान का अक्षय-अमर कोष, अष्टावक्रगीता विद्वद्वर्ग में अतीव सम्माननीय है।
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किसी भी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के देह का सर्वप्रथम दर्शन होता है। देह का रूप-रंग, आकारप्रकार- इनकी विविधता ही दिखाई पड़ती है। इसी के आधार पर व्यक्ति-विशेष की पहचान स्थिर होती है। किन्तु यह व्यावहारिक जगत की बात है। बौद्धिक धरातल पर व्यक्तित्व की पहचान उसके प्रशस्त या अप्रशस्त कर्मों के आधार पर होती है। व्यक्तित्व का मापन उसके शील व सदाचार के आधार पर किया जाता है। देह के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारण अपूर्ण है, कभी-कभी वास्तविकता से दूर भी हो जाता है। अच्छी आकृति व सुन्दर शरीर वाला भी क्रूर कर्म करे तो उसे सौम्य व सुन्दर कहना न्यायोचित नहीं,
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सास्कृतिक एकता/29800