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________________ ये बलिदानी (सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः) सभी योनियों में मानव योनि श्रेष्ठ है। मोक्ष की साधना मानव योनि में ही संभव है। मनुष्य का शरीर यदि अपनी साधना-आत्मकल्याण के काम आए, तभी वह सार्थक शरीर होता है। लेकिन साधना करते-करते यदि साधक परहित के लिए या अपने धर्म की रक्षा के लिए अपने शरीर की बलि दे देता है तो यह मानव देह की सबसे बड़ी सार्थकता है। उत्साह और परहित-साधन की भावना की प्रशंसा भारतीय संस्कृति की अंगभूत सभी विचारधाराओं में मुक्तकण्ठ से की जाती रही है। वैदिक साहित्य की सूक्ति है-नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सुप्रथस्तमम् (ऋग्वेद1/18/9)। अर्थात् जनहितकारी और प्रतापी व्यक्ति को प्रसिद्धि प्राप्त करते देखा गया है। व्यक्ति जो भी जन्मता है, वह मरता है, किन्तु जनहित का कार्य करने वाला उस कीर्ति को प्राप्त करता है जिसके कारण उसका नाम सर्वदा भावी पीढियों द्वारा सादर याद किया जाता रहता है- यही उक्त वैदिक सूक्ति का तात्पर्य है। जन-हित की भावना के कारण उत्साही व्यक्ति अपने मार्ग में आने वाले कष्टों की परवाह नहीं करते। वैसा व्यक्ति सभी प्राणियों को आत्मवत् समझता है, इसलिए उसे दूसरों का कष्ट अपने कष्ट जैसा ही प्रतीत होता है और वह उस कष्ट को दूर करने के लिए तन-मन-धन से तत्पर हो जाता है। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है- उत्साहवन्तः जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सारकृतिक एकता/300)>
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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