SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का अधिष्ठाता (आत्मा) है, वह सर्वदा अवध्य है। इस देह व आत्मा में पूर्णतः भिन्नता है। कहा भी है- देहोऽहमिति या बुद्धिः, अविद्या सा प्रकीर्तिता। नाहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विद्येति भण्यते (अध्यात्मरामायण, 4/33), अर्थात् मैं देह हूं- यह जो बुद्धि है, वह अविद्या है, मैं देह से भिन्न चैतन्य रूप आत्मा हूं- यह बुद्धि 'विद्या' है। आचार्य शंकर के अनुसार- देहस्य मोक्षो नो मोक्षो, न दण्डस्य कमण्ड लोः। अविद्याहृदयग्रन्थिमोक्षो मोक्षो यतस्ततः (विवेकचूड़ामणि, 559), अर्थात् देह मुक्त नहीं होता, देह व आत्मा का बिछुड़ना भी मोक्ष नहीं है। दण्ड-कमण्डल (जैसे जड़ पदार्थों) का त्याग भी मोक्ष नहीं है। देह व आत्मा को अभिन्न समझने की जो अविद्या है, उस हृदय-ग्रन्थि का खुल जाना, अविद्या का विनष्ट हो जाना ही मोक्ष है। इसलिए देह का महत्त्व तुच्छ है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है- 'आत्म-तत्त्व'। इसीलिए वैदिक ऋषि का उद्बोधन है:- पश्यतेममिदं ज्योतिरमृतं मर्येषु (ऋग्वेद- 6/9/4), अर्थात् मरणशील नश्वर शरीरों में अन्तःस्थित अविनाशी चैतन्य रूपी अमृतज्योति का साक्षात्कार करें। यह उद्बोधन उन लोगों के लिए ज्यादा उपयोगी है जो देह व आत्मा को अभिन्न समझ कर भौतिक सुख में आसक्त हो रहे हैं और आध्यात्मिक साधना से भ्रष्ट हैं। इसी दृष्टि से उपनिषत्कार ने भी आत्म-तत्त्व को ही श्रवणमनन-निदिध्यासन की पद्धतियों से जानने-समझने और उसके शुद्ध स्वरूप के साक्षात्कार करने की प्रेरणा दी है- आत्मा वाडरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः (बृहदा. उप. 2/4/5)। उक्त आत्मा-सम्बन्धी तात्त्विक ज्ञान जिन्हें हो जाता है, वे सभी प्राणियों को एक समान समझते हैं, आत्मवत् समझ कर व्यवहार करते हैं। उनकी दृष्टि में कुल, जाति, वैभव आदि की दृष्टि से कोई व्यक्ति छोटा-बडा, महान् या तुच्छ नहीं होता। इसी दृष्टि से महाभारत में और अन्यत्र 'जाति' आदि का खण्डन किया गया है- न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत् (महाभारत, 12/ 181/10), अर्थात् वर्णगतभेदभाव वास्तविक नहीं है, समस्त जगत् ब्रह्ममय है। महर्षि नारद के मत में नास्ति तेषु जाति-विद्या-रूप-कुल-धनक्रियादिभेदः (नारदभक्तिसूत्र, 72), अर्थात साधकों में जाति, विद्या,रूप, कुल, वैभव आदि को लेकर छोटे-बड़े के भेद की दृष्टि नहीं होती। - जैन धर्म एवं वैदिक धर्ग की सांस्कृतिक एकता /292)><
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy