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देह को नहीं, आत्मा को देखो!
(सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः) मनुष्य-जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। यद्यपि आत्मा तो सभी प्राणियों में समान है, किन्तु यह जो मानव-देह मिला है, वह सब प्राणियों में विशिष्ट है। देह से जुड़ी ज्ञानेन्द्रियां व कर्मेन्द्रियां और मन की जैसी विशिष्ट सम्पति मानव को मिली हई है, वह अन्य प्राणियों को नहीं। देह भौतिक है, जड़ है, विनश्वर है, किन्तु उसमें रहने वाली आत्मा चेतन है, अमूर्त है, अविनाशी
और उज्ज्वल ज्योति स्वरूप व चिदानन्दस्वरूप है। भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति के पुरोधा आचार्यों ने साधक को हमेशा यह दृष्टि दी कि देह व आत्मा को पूर्णतः भिन्न समझो। इन दोनों को एक या अभिन्न समझना ही 'अज्ञान' है जो सभी दुःखों का जनक है।
देह की अपेक्षा आत्मा को प्रमुखता देना, देह को संजानेसंवारने की अपेक्षा, तपस्या से कर्म-मल हटा कर आत्मा को संवारना तथा उसे निर्मल-शद्ध-पवित्र बनाना- यही भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति का मौलिक चिन्तन है। इस सम्बन्ध में जैन व वैदिक- दोनों ही विचारधाराओं की समानता व एकस्वरता निर्विवाद है। इसके समर्थन में दोनों परम्पराओं के कुछ शास्त्रीय उद्धरणों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
वैदिक परम्परा में देह, आत्मा और इनके स्वरूप व सम्बन्धों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। गीता में कहा गया है-देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत (गीता- 2/30), अर्थात् सभी प्राणियों के देह में जो देही-देह
द्वितीय राण्ड : 291