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________________ जाली को सत्य का ज्ञान प्राप्त हो गया । उनका अहं नष्ट हो गया। सच्चे अर्थों में वे महातपस्वी बन गए। [द्रष्टव्य महाभारत, शांतिपर्व, 261 अध्याय ] OOO वैदिक परम्परा के ऋषि जाजलि और जैन परम्परा के बाहुबलि अपनी-अपनी परम्परा के अनुरूप महान् तपस्वी थे। दोनों की तपश्चर्या बेजोड़ थी- इसमें सन्देह हीं। लेकिन उनकी यह विशिष्ट तपश्चर्या भी किन्हीं अंशों में अपूर्ण थी, इसलिए 'परम उपलब्धि' से वे दूर रहे | कारण था- उनमें विद्यमान अहंकार का लेश | बाहुबलि में तो वह सूक्ष्म रूप में ही था । किन्तु मनोविकार या कषाय अल्पतम भी हो, तो भी वह साधना की पूर्णता में बाधक होता ही है। ब्रह्मज्ञान या मुक्ति के बीच अहंकार एक दीवार बन कर खड़ा था । ज्यों ही उन्हें अपनी अपूर्णता का कारण समझ में आया और अहंकार पूर्णतः क्षीण हुआ, तभी उन्हें अपना लक्ष्य हस्तगत हो गया। संत तुलसीदास ने ठीक ही कहा है कंचन तजना सहज है, सरल त्रिया का नेह । मान, बड़ाई, ईर्ष्या, तुलसी दुर्लभ येह ॥ मान-बड़ाई, ईर्ष्या को छोड़ना अत्यन्त मुश्किल है । इनको छोड़ने पर ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है- यह निश्चित है । उपर्युक्त दोनों कथानकों से जैन व वैदिक-इन दोनों परम्पराओं की उपर्युक्त तथ्य पर सहमति या एकस्वरता अभिव्यक्त होती है। जन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 290
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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