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" आपका कथन अक्षरशः सत्य है ।" जाजली बोले- "मैं नना चाहता हूं कि आप मेरे बारे में और क्या जानते हैं?"
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“आप दीर्घ तपस्वी हैं, कठोर संयमी हैं । आपकी समाधि युगों तक अडोल अकंप रही । आपकी देह पर पक्षियों ने घोंसले बना लिए। आप समाधि में खोकर काल का ज्ञान तक भूल गए ।" तुलाधार बोलते चले गए- " समाधि की परिसमाप्ति पर जब आपको काल का ज्ञान हुआ तो आपको अपने तप का अहंकार हो गया कि मुझसे बड़ा तपस्वी आज तक नहीं हुआ। तब आकाशवाणी ने आप के विचार को खण्डित कर दिया और आप मेरे पास चले आए। कहिए मैं आपकी क्या सेवा करूं?"
जाजली ऋषि विस्मित नेत्रों से तुलाधार वणिक् को देख रहे थे । उसके इस ज्ञान पर वे विमोहित हो उठे । बोले- “आपको यह निर्मल ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ?”
"यह तप का परिणाम है ।" तुलाधार ने उत्तर दिया- "मेरे यत्किंचित् तप का ही यह परिणाम है कि मैं भूत और भविष्य में झांककर यत्किंचित् जान लेता हूं।"
" आप कौन सा तप करते हैं?" जाजली ने बढ़ते आश्चर्य से पूछा - "मैं आपके तप को ही जानने के लिए आपके पास आया हूं।" “मैं अपने आश्रम - गृहस्थाश्रम की मर्यादाओं का पूर्ण निष्ठा से पालन करता हूं।” तुलाधार वणिक् बोले - " मैं मनसा वाचा कर्मणा किसी का अहित नहीं करता हूं। अपने पड़ोसियों से सदैव अच्छा व्यवहार करता हूं। पूरा तौलता हूं। उससे अर्जित धन से परिवार पालन करता हूं । किसी की धरोहर नहीं मारता हूं । हरी लकड़ी नहीं काटता हूं। कालानुकाल हरि का भजन - सुमरण करता हूं। यही मेरा तप है। इसी तप के परिणाम से मुझे यत्किंचित् ज्ञान है
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“तो मेरा हजारों वर्षों का तप व्यर्थ गया ?" जाजली ने पूछा । “तप व्यर्थ नहीं जाता।” तुलाधार ने समाधान दिया- " तप को व्यर्थ - नष्ट करने वाला अहंकार है । महर्षे! अहंकार ही वह परम बाधा है जो साधक को कठोर तप करने पर भी ज्ञान से दूर रखती है। आप का तप निश्चित रूप से अतुल्य है। सुदीर्घ और कठोर है। लेकिन उसमें उत्पन्न अहं को तोड़िए ।" तुलाधार वणिक् ने जाजली ऋषि को उपदेश दिया । उस उपदेश को सुनकर
द्वितीय खण्ड/ 289
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