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________________ [२] महर्षि जाजली विदिक) जाजली नाम के एक ऋषि थे। गंगा नदी के तट पर वे घोर तप करते थे। उग्र तप और अकम्प समाधि के परिणामस्वरूप उनके घुटनों तक मिट्टी चढ़ गई थी। गौरैय्या पक्षियों ने उनकी जटा-जूटों में घोंसले बना लिए थे। जंगली जानवर उनकी देह को ढूंठ समझकर अपनी देह को रगड़ते थे। सुदीर्घ काल तक जाजली ऋषि समाधि में रहे। समाधि की सम्पूर्ति पर उन्होंने आंखें खोलीं। किसी से सम्वत पूछा । वे जानना चाहते थे कि उनकी समाधि कितने काल तक अखण्ड रही। समाधि में ही उन्होंने हजारों वर्ष बिता दिए- यह जानकर उनके मन में तप का अहंकार उत्पन्न हो गया। उन्होंने विचार किया- मेरे जैसा तपस्वी आज तक न हुआ होगा। मैंने सर्वोच्च तप किया है। जाजली ऋषि को तप के मद में डूबा देखकर प्रकृति विचलित हो गई। उस क्षण एक आकाशवाणी हुई- “जाजली! तप का अहंकार मत कर! वाराणसी निवासी तुलाधार वणिक् तुमसे बड़ा तपस्वी है तब भी उसने कभी अपने तप का अहंकार नहीं किया।" आकाशवाणी सुनकर जाजली ऋषि तुलाधार वणिक् के दर्शन करने के लिए उत्कष्टित हो गए। मार्ग का ज्ञान प्राप्त करके वे वाराणसी की ओर चल दिए। तीर्थाटन करते हुए वे वाराणसी पहुंचे। जाजली तुलाधार वणिक् की दुकान पर पहुंचे। उन्होंने देखातुलाधार बड़े ध्यान से व्यापार में तल्लीन है। उनका ध्यान समाधि के ध्यान से कम तल्लीन न था। ग्राहक को बिदायगी देकर तुलाधार ने आंखें ऊपर की । जाजली ऋषि को देखकर वे उठ खड़े हुए और उनका स्वागत करते हुए बोले- “पधारिए महर्षे! मैं आपके आगमन की ही प्रतीक्षा कर रहा था।" "मेरे आगमन की? क्या आप मुझे जानते हैं?" जाजली ने आश्चर्यमिश्रित स्वर से पूछा। हां महर्षे!” तुलाधार बोले- "आप मेरे ही पास आए हैं यह जानने के लिए कि मैं आप से बड़ा तपस्वी कैसे हूं।" जन धर्म एव सादिक धर्म की सांसशक्त काता 288
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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