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अपनों का वध नहीं करता अतः वह बाहुबली की प्रदक्षिणा करके लौट आया। लेकिन इस कृत्य ने बाहुबली के प्रचण्ड क्रोध को भड़का दिया। वे मुक्का तान कर भरत को मारने के लिए दौड़े। सर्वत्र आतंक फैल गया। देवों ने बीच बचाव करते हुए बाहुबली से कहा- “महावीर! तुच्छ राज्य के लिए आप अपने भाई का वध करने जा रहे हैं। आप जैसे प्रामाणिक पुरुष भी जब अपने बड़े भाई का आदर न करेंगे तो साधारण जनता की क्या दशा होगी।"
बाहुबली रूक गए। उन्होंने अपनी तनी हुई मुट्ठी को अपने सिर पर लेते हुए पंचमुष्टी लुंचन कर डाला और मुनि बन गए। जैसे ही वे भगवान ऋषभदेव के पास जाने को तैयार हुए तो उन्हें विचार आया- “वहां तो मुझे पूर्वदीक्षित अपने लघुभाइयों को वन्दना करनी पड़ेगी। मैं केवलज्ञान प्राप्त करके ही प्रभु के पास जाऊंगा जिससे वन्दनादि मुझे न करने पड़ें।"
अहं की चिंगारी को हृदय में छिपाकर बाहुबली ने घोर तप शुरू कर दिया। उन्होंने प्रण कर लिया कि जब तक 'केवल ज्ञान' प्राप्त नहीं होगा तब तक अन्नजल तो दूर, वे पलक तक न खोलेंगे। महान् निश्चय करके बाहुबली खड़े हो गए। दिनों पर दिन और महीनों पर महीने अतीत हो गए लेकिन उन्हें 'केवल ज्ञान' न हुआ। उनका शरीर कृश हो गया। पक्षियों ने उनकी देह में घोंसले बना लिए। प्रस्तर मूर्ति की भांति वे अडोल खड़े थे। लेकिन भीतर सूक्ष्म अहं था। वे अपने लघु भ्राताओं के समक्ष झुकना नहीं चाहते थे। वह सूक्ष्म अहं बाहुबली और कैवल्य के मध्य महान् दीवार बन गया। प्रभु ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुन्दरी नामक साध्वियों को आज्ञा प्रदान की। कहा- जाओ! बाहुबली को बोध प्रदान करो। भगवान् की आज्ञा का पालन करते हुए ब्राह्मी और सुन्दरी बाहुबली के पास पहुंची। उन्होंने बाहुबली को अहंकार के हस्ती से नीचे उतरने को कहा। बहिन साध्वियों की बात सुनकर बाहुबली चौंके। अन्ततः बहनों की प्रेरणा से उन्होंने अहं को छोड़ दिया। उन्होंने ज्योंही अहंकार को छोड़ा, उसी क्षण कैवल्य का महा आलोक उनकी आत्मा में जगमगा उठा। अहं से शून्य तप ही महान कर्मों की निर्जरा करता है, जबकि अहं के साथ किया गया महान तप भी साधक को साध्य से दूर रखता है। [त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित से]
शिशीय गण्ड 287