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________________ [१] बाहुबली (जैन) जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के सौ पुत्र थे। चक्रवर्ती भरत उन के सबसे बड़े पुत्र थे। द्वितीय पुत्र का नाम बाहुबली था। बाहुबली अपरिमित बलशाली थे। भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा लेने से पूर्व राज्य को सौ भागों में बांट दिया और अपने सभी पुत्रों को समान उत्तराधिकार प्रदान किया। भरत को अयोध्या का राज्य मिला और बाहुबली को बहली प्रदेश का । भरत ने सम्पूर्ण भूमण्डल को एक शासन-सूत्र में पिरोने के लिए दिग्विजय अभियान प्रारंभ किया। वर्षों के अभियान के पश्चात् विश्व-विजय करके भरत अयोध्या लौटे। लेकिन अभी तक उनकी आयुधशाला में सुदर्शन चक्र प्रविष्ट न हुआ था। इसका अर्थ यह था कि अभी भी कुछ ऐसे राजा हैं जो भरत को अपना स्वामी नहीं मानते हैं। विचार करने पर भरत का ध्यान अपने निन्यानवें भाइयों पर गया। उन्होंने अपने सभी भाइयों के पास उनकी अधीनता स्वीकार करने के प्रस्ताव भेजे । बाहुबली के अतिरिक्त शेष अठानबे भाई भरत से त्रस्त हो उठे और राज्य त्याग कर मुनि बन गए। बाहुबली न तो मुनि बने और न उन्होंने भरत को स्वामी स्वीकार किया। भरत द्वारा भेजी युद्ध की चुनौती को बाहुबली ने स्वीकार कर लिया। चक्रवर्ती भरत की विशाल सेना ने बहली के देश को घेर लिया। बाहुबली भी अपने वीर सैनिकों के साथ रणांगण में उपस्थित हुए। भयानक नरसंहार होने वाला था। कुछ बुद्धिजीवियों ने भरत और बाहुबली को सलाह दी कि दोनों भाई परस्पर बल-परीक्षण कर लें, जो जीतेगा वह स्वामी होगा और जो हारेगा वह अधीनता स्वीकार करेगा। दोनों ने इस सलाह को स्वीकार कर लिया। ध्वनियुद्ध, दृष्टियुद्ध, मुष्टियुद्ध, बाहुयुद्ध तथा दण्डयुद्ध- ये पांच प्रकार के युद्ध भरत और बाहुबली के मध्य लड़े गए। पांचों में ही भरत पराजित हुए। इस पराजय से भरत अपना भान भूल बैठे। उन्होंने बाहुबली का वध करने के लिए सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। सुदर्शन चक्र जैन धर्म एवं दिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/286
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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