SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन परम्परा में भी उपर्युक्त विचारों को सभी आचार्यों ने मान्य किया है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है- अन्नो जीवो अन्नं सरीरं (सूत्रकृ. 2/1/9), अर्थात् जीव और उसका शरीर दोनों पृथक्-पृथक् हैं। जैन आगम के व्याख्याकार नियुक्तिकार का कहना है- अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति एवं कमबुद्धी। दुक्खपरिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीरादो (आवश्यक-नियुक्ति, 1547), अर्थात् शरीर और आत्मा दोनो एक दूसरे से पृथक्-पृथक् हैं- इस तात्त्विक बुद्धि से साधक दुःख-क्लेश के प्रमुख कारण 'शारीरिक ममत्व' को त्याग दे। इस शरीर और आत्मा का सम्बन्ध उसी प्रकार समझना चाहिए जैसे नाविक और नाव का होता है- सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो व्रत्तो जं तरंति महेसिणो (उत्तराध्ययन सू. 23/73), अर्थात शरीर नाव है तो जीव नाविक है। यह संसार एक सागर है, जिसे महर्षि पार कर जाते हैं। जैसे नाविक नाव को चलाता है, उसकी अकुशलता से नाव समुद्र में डूब भी सकती है और कुशलता से वह उस नाव के सहारे समुद्र को पार भी कर सकता है, उसी तरह इस देह के सम्यक् प्रयोग से साधक मुक्ति प्राप्त कर सकता है, अन्यथा भवसागर में डूब सकता है। समस्त जीवों में समान रूप से चिदानन्दमय आत्मज्योति विराजमान है, उनमें कोई छोटे-बड़े का भेद नहीं है। जाति आदि की सत्ता वास्तविक नहीं है, औपाधिक व कर्मकृत है। जिनवाणी का स्पष्ट उद्घोष हैसक्खं खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसइ जाइ विसेस कोवि (उत्तरा. 12/ 37), अर्थात् तप की विशेषता तो साक्षात् दिखाई पड़ती है, जातिगत विशेषता (भेद) नहीं। बौद्ध परम्परा भी उपर्युक्त समग्र विचारधारा का समर्थन करती हुई जाति-गत भेद को स्वीकार नहीं करती- न जच्चा ब्रह्मणो होति, न जच्चा होति अब्र ह्मणो। कम्मुणा बम्हणो होति, कम्मुना होति अब्राम्हणो (सुत्तनिपात, 35/57), अर्थात् कोई जन्म से या जाति से ब्राह्मण या अब्राह्मण नहीं होता, कर्म से ही कोई ब्राह्मण या अब्राह्मण होता है। उपर्युक्त समग्र भारतीय विचारधारा का सार या निष्कर्ष यह है कि देह, जाति, कुल आदि के आधार पर किसी को छोटा या बड़ा, श्रेष्ठ या तुच्छ समझना असंगत है। प्रत्येक प्राणी में अन्तर्निहित आत्म-ज्योति को द्वितीय रवगड/293
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy