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अहंकार के दुष्परिणामों तथा उसकी हेयता को सभी भारतीय धार्मिक विचारधाराओं में व्याख्यायित किया गया है। विशेषतया धार्मिक साधना में तो अहंकार सर्वथा वर्जनीय है। महाभारत के अनुसार धार्मिक व्यक्ति के लिए अभिमान से रहित होना विशेष रूप से अपेक्षित माना गया है:
न स्तम्भी न च मानी यो न प्रमत्तो न विरिमतः। मित्रामित्रसमो मैत्रः, यः स धर्मविदुत्तमः॥
- (महाभारत- 13/129/55) वही उत्तम धर्मज्ञाता है जो जड़ता, अभिमान, प्रमाद व विस्मय से रहित है और जो शत्रु व मित्र के प्रति समान भाव रखता है।
___जब व्यक्ति के अहं पर चोट पड़ती है तो क्रोध का आवेश भी आता है। अभिमानी-अहंकारी साधक को अपना अपमान सहन नहीं हो पाता, तो वे क्रोधाविष्ट हो जाता है। किन्तु यह क्रोध व्यक्ति की तपस्या को निष्प्रभावी कर देता है। इसलिए महर्षि व्यास ने महाभारत में कुछ उपयोगी निर्देश दिए हैं:- नित्यं क्रोधात् तपो रक्षेत् (महाभारत, 12/189/10)। अर्थात् तपस्या को क्रोध से हमेशा बचाए रखे।
जैन परम्परा में भी उक्त विचारधारा का पूर्णतः समर्थन किया गया है।
अहंकार का उद्गम स्थल अज्ञान है। इसी बात को स्वीकार करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था- बालजणो पगब्भई। (सूत्रकृतांग1/11/2) अर्थात् अज्ञानी मनुष्य अभिमानी होता है।
जैन आचार्यों ने कहा है- मद्दवकरणं णाणं तेणेव जे मदं समुवहति। ऊणगभायणसरिसा अगदो वि विसायते तेसिं (निशीथ भाष्य6222)। अर्थात् यद्यपि ज्ञान मनुष्य को मृदु बनाता है, किन्तु कुछ मनुष्य उससे भी मदोद्धत होकर 'अधजलगगरी छलकत जाय' की कहावत के अनुसार अपने आपे में नहीं रहते। उन्हें अमृत-स्वरूप औषधि भी विष की तरह घातक बन जाती है। भगवान् महावीर ने कहा- माणेण अहमा गई (उत्तरा. सू. 9/55) अर्थात् मान/अहंकार के प्रदर्शन करने वाले की अधोगति अवश्यम्भावी है। स्थानांग सूत्र में कहा गया है- सेलथंभसमाणं माणं अणपविढे जीवे । कालं करेइ णेरयइएसु उववज्जति (स्थानांग- 4/2)। अर्थात् पत्थर के खम्भे की तरह जीवन में न झुकने वाला अहंकार आत्मा
जैन धर्ग सादिक धर्ग की सांस्कृतिक एकता /2840x