________________
मानव-जीवन की 3 क्रमिक अवस्थाएं हैं- बाल्य, युवा और वृद्ध । बाल्य अवस्था अबोध होती है, वहां तात्त्विक विवेचना और परामर्श-चिन्तन प्रायः नहीं हो पाता। वृद्धावस्था अशक्त है। इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं, शरीर क्षीण हो जाता है, तब तपश्चर्या जैसी कठोर साधना प्रायः सम्भव नहीं हो पाती। मात्र युवावस्था ही वह अवस्था है जिसमें मानव लौकिक- परलौकिक साधना कर सकता है। अधिकांश लोग- सांसारिक रुचि रखने वाले लोगयुवावस्था के लिए कहते हैंऐश कर दुनिया की गाफिल फिर ये जिन्दगी कहां। जिन्दगी गर रही तो फिर ये नौजवानी कहां॥
किन्तु इस अवस्था में जिन्हें विवेक या सज्ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उनका चिन्तन सुख-भोग के लिए नहीं, अपितु आत्मकल्याण के लिए होता है।आत्मा को छोड़कर सभी भौतिक पदार्थों का, यहां तक कि अपने शरीर की अनित्यता, नश्वरता का, उन्हें दृढ भान हो जाता है और वे इन सांसारिक नश्वर कामभोगों की अपेक्षा अनश्वर-शाश्वत आनन्द की प्राप्ति हेतु तप, संयम, ध्यान की आराधना में तुरन्त प्रवृत्त हो जाते हैं।
युवावस्था में रहते हुए ही विरक्ति का प्रादुर्भाव किसी पुण्योदय से ही होता है और प्रायः दुर्लभ भी। उपर्युक्त कथानकों में ऐसे महान् पुण्यात्माओं का जीवन-चरित है जिन्होंने युवावस्था में ही संसार-भोगों को त्याग कर आत्मकल्याण के मार्ग को अपनाया।
जैन और वैदिक साहित्य से उद्धृत उपर्युक्त दो कथानकों में इसी सत्य को स्वीकृति मिली है कि वैराग्यसाधना के लिए किसी नियत वय की अनिवार्यता नहीं है।
शिकीय तण्ड, 281