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________________ कुछ समय पश्चात् पचास अनिंद्य सुन्दरी बालाएं उनके पास आईं। उनके चित्त में चंचलता जगाने के लिए वे उन्हें महल के साथ ही सटे प्रमदावन नामक सुन्दर उद्यान में ले गईं। वे बालाएं नाच-गान और हावभाव के प्रदर्शन में निपुण थीं। उन्होंने अपने समस्त प्रयास किए शुकदेव में कामासक्ति जगाने के, लेकिन वे असफल रहीं। शुकदेव अब भी आत्मचिन्तन में तन्मय थे। महाराजा जनक शुकदेव की परीक्षा ले चुके थे। वे शुकदेव के पास आए और बोले- “शुकदेव! तुम तो जन्मजात ब्रह्मज्ञानी हो। तुम गुरुओं के गुरु हो। तुम तो मुझे गुरु बनाकर मेरा मान बढ़ाने आए हो।" जनक ने शुकदेव की प्रार्थना पर उन्हें अध्यात्मविद्या का ज्ञान प्रदान किया। शुकदेव ने तप करके परमधाम प्राप्त किया। मुनि शुकदेव की एक और प्रसिद्ध घटना बताई जाती है। एक बार, मार्ग के किनारे एक कमल सरोवर में कुछ देवांगनाएं स्नान कर रही थीं। मुनि शुकदेव उधर से गुजरे, किन्तु देवांगना कुछ भी संकोच नहीं करते हुए अपनी जलक्रीडा में संलग्न रहीं। उनके जाने के बाद, महर्षि व्यास भी उधर से गुजरे। महर्षि व्यास को उधर से आते देखकर वे जलाशय से बाहर निकलीं और अपने वस्त्र पहनने लगीं। निकट पहुंचकर महर्षि व्यास ने उन देवांगनाओं से कहा- “देवियों! मेरा युवा पुत्र शुकदेव नग्नावस्था में अभी कुछ क्षण पहले ही इधर से गुजरा है। उससे तो तुमने लज्जा नहीं की। और मुझ वृद्ध ऋषि को देखकर तुम लज्जाशील हो उठीं। क्यों?" देवियों ने उत्तर दिया- "ऋषिवर! आपका पुत्र भले ही युवा और नग्न था पर उसकी आंखों में काम का कोई भाव न था। उसे तो स्त्री और पुरुष में भेद ही ज्ञात नहीं है। इसलिए उसका यहां से गुजरना हमें ज्ञात ही नहीं हुआ। और आप भले ही वृद्ध और ज्ञानी ऋषि हैं, पर आपकी आंखों में अब भी स्त्री और पुरुष का भेद शेष है। आपके आगमन ने हमें पहले ही सावधान कर दिया था।" व्यास जी पुत्र की निःस्पृहता से परिचित हुए। उन्हें लौट पाना उन्हें असंभव प्रतीत हुआ। वे स्वयं अपने आश्रम में लौट आए। 000 जनजादिक if की सास्कृतिक का। 261
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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