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________________ विरक्ति का प्रादुर्भाव होते ही व्यक्ति का मोक्ष के प्रति उत्कट अनुराग प्रकट हो जाता है। सांसारिक वैभव उसे निःसार ही नहीं, कटुपरिणाम देने वाले प्रतीत होते हैं। इस उत्कट इच्छा के कारण, व्यक्ति तुरन्त समस्त सांसारिक बन्धनों को तोड़कर एकाकी आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है, इसमें वह एक पल की भी देरी नहीं करना चाहता। इसी प्रसंग में महाभारत का वचन है- अद्यैव कुरु यच्छ्रेयः, मा त्वां कालोऽत्यगान् महान् (महाभारत- 12/159/1) अर्थात् जो कुछ कल्याण करना हो, आज ही कर लो, समय व्यर्थ न गंवाओ। इसी दृष्टि से उपनिषद् का परामर्श है कि जिस दिन विरक्ति जागे, उसी दिन (तत्काल) घरबार छोड़कर संन्यास ले लेना चाहिए- यदहरेव विरजेद, तदहरेव प्रव्रजेत् (जाबालोपनिषद, 4)। वैराग्य परम घटना है। अनन्त अतीत में यह घटना केवल एक ही बार आत्म-तल पर घटित होती है। उस क्षण में आत्मा के लिए परमात्मा ही एकमात्र लक्ष्य शेष बचता है। शेष लक्ष्य खो जाते हैं। तृतीय चक्षु खुल जाता है । सार और निःसार की परीक्षा का विवेक उपलब्ध हो जाता है। विरक्त व्यक्ति में हुए वैचारिक परिवर्तन का जिनवाणी में इस प्रकार वर्णन है सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नर्से विडंबियं। सब्वे आभरणा भारा, सब्वे कामा दुहावहा॥ (उत्तरा. 13/16) -इस संसार के सभी गीत विलाप स्वरूप हैं। सभी नृत्य विडंबना स्वरूप हैं। सभी आभूषण भार स्वरूप हैं तथा सभी काम दुखदायी हैं (ऐसा विरक्त व्यक्ति का चिन्तन होता है)। उत्कट विरक्ति जब जाग उठती है, तब तत्काल प्रव्रजित होने की भावना भी बनती है। इस भावना को किन्हीं विरक्त पात्रों के माध्यम से जैन आगम में इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया हैअजेव धम्म पडिवज्जयामो, जहिं पवण्णा ण पुणब्भवामो। (उत्तरा. सू. 14/28) अर्थात् हम आज ही धर्म की शरण में जाएंगे ताकि पुनः संसार में जन्म न लेना पड़े। संसार के स्वरूप को अत्यन्त निकट से अनुभव करने वाले जनार्ग एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/274 - 0
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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