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गुवावाधा और वैराग्य
(सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः)
वैराग्य द्वार है- परम श्रेष्ठ जीवन का । परमात्मा का । भ्रान्तक्लान्त आत्मा परम शान्ति को उपलब्ध होती है वैराग्य के क्षण में। उस क्षण में वे व्यामोह-आकर्षण, जो जन- साधारण को व्यामोहित-आकर्षित करते हैं, निःसत्त्व-सारहीन और नीरस हो जाते हैं। परम के स्वाद का आकर्षण आत्मा के कण-कण में जागृत होता है। 'काम' नीरस हो जाता है। निष्कामता का आनन्द-वर्षण होने लगता है। दुनियावी वैभव उथले प्रतीत होने लगते हैं आत्म-वैभव की गहराई की इस उपलब्धि पर । भटकाव का अन्त हो जाता है। आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है।
इसीलिए आचार्य शंकर कहते हैं- मोक्षस्य हेतुः प्रथमं निगद्यते, वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु (विवेक चूड़ामणि, 71)। अर्थात् अनित्य वस्तुओं के प्रति अत्यन्त विरक्ति होना- यह मोक्ष का प्रथम हेतु है, साधन है- पहली सीढी है। उपनिषद् के ऋषि ने भी मोक्ष-प्राप्ति का कारण बताते हुए कहा है:
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते, कामा येऽस्य हृदि स्थिताः। अथ मोऽमृतो भवति, अत्र ब्रह्म समश्नुते॥
(बृहदा. उप. 4/4/7) अर्थात् मनुष्य जब हृदय-स्थित समस्त कामनाएं छोड़ देता है, तभी वह 'अमृतत्व' को प्राप्त होकर ब्रह्म का साक्षात्कार करता है।
द्वितीय खण्ड/273