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________________ निवृत्तिप्रधान संयमतपोनिष्ठ श्रमण परम्परा के अनुयायी तपस्वियों का 'वातरशना' मुनियों के रूप में निर्देश भी ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्र में है जिससे इस परम्परा की प्राचीनता ही रेखांकित होती है: - मुनयो वातरशनाः पिशंगा वसते मला । वातस्यानु धाजिन् यन्ति यद्देवासो अविक्षत || (ऋग्वेद- 1/11/136/2) 'वातरशना' से तात्पर्य है - ऐसे कठोर तपस्वी जो वायु पीकर जीवित रहते थे । भागवतपुराण (5/6/19) में वातरशना मुनियों की परम्परा से आदितीर्थंकर ऋषभदेव को जोड़ा भी गया है । अतः यह स्पष्ट है कि निश्चित ही उक्त मुनि कठोर तप साधना में निर जैन साधुओं के पूर्वज रहे होंगे । अनेक पुरतात्त्विक साक्ष्य इस तथ्य को ट करते हैं कि श्रमण परम्परा वैदिककालीन सभ्यता से भी प्राचीन है । मोहनजोदडो व सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में श्रमण परम्परा की अध्यात्म-साधना के निदर्शन उपलब्ध हुए हैं । मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त नग्न मूर्तियां और कायोत्सर्ग (अर्थात् खड़ी) मुद्रा में योगी की मूर्ति स्पष्ट रूप से किसी ध्यानस्थ जैन तीर्थंकर की प्रतिमूर्ति प्रतीत होती हैं । प्रसिद्ध इतिहासविज्ञ श्री कामताप्रसाद जैन के विचार में योगी की उक्त मूर्ति तीर्थंकर सुपार्श्व या पार्श्वनाथ की प्रतीत होती है। एक वैदिक मन्त्र में स्पष्टतः जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव (ऋषभदेव) की स्तुति करते हुए जो उद्गार व्यक्त किया गया है, वह जैन संस्कृति की मान्यताओं के सर्वथा अनुरूप है । यद्यपि दार्शनिक वयाख्याकारों ने अपने अपने दर्शनों के अनुरूप व्याख्या करने का प्रयास किया है, तथापि 'वृषभ' शब्द निश्चित ही वृषभ चिन्ह वाले प्रथम तीर्थंकर को संकेतित करता हुआ संगत होता है: जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 6
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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