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________________ चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मां आविवेश॥ (ऋग्वेद, 4/58/3) अर्थात् जिस के चार शृंग (अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य) हैं, तीन पाद (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र) हैं, दो शीर्ष (कैवल्य और मुक्ति) हैं और सात हस्त (सात व्रत) हैं तथा जो मन, वचन और काय-इन तीन योगों से बद्ध (संयत) है, उस वृषभ (ऋषभ देव) ने घोषणा की है कि महादेव (परमात्मा) मनुष्य के भीतर ही आवास करता है। एक अन्य वैदिक मन्त्र में 'हिरण्यगर्भ' परमेश्वर की महिमा का गान किया गया हैहिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (यजुर्वेद- 1 3/4, 23/1, 25/1, ऋग्वेद-1/121/1) -अर्थात् सर्वप्रथम 'हिरण्यगर्भ' हुए और वे जगत् के एकमात्र स्वामी हुए। उन्होंने पृथ्वी को धारण किया, उस अनिर्वचनीय देव की हम अर्चना करते हैं। उपर्युक्त मन्त्र में 'हिरण्यगर्भ' रूप में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की महिमा का निरूपण है । ऋषभदेव का एक नाम 'हिरण्यगर्भ' भी है क्योंकि इनके गर्भ में आने पर सुवर्ण की दृष्टि हुई थी (द्र. आदिपुराण- 12/95)। उन्होंने असि-मसि-कृषि की शिक्षा देकर, विषादग्रस्त धरतीवासियों को सुरक्षा प्रदान की और अमर्यादितअनुशासनहीन जीवन द्वारा होने वाले उनके भावी संकट का निवारण किया था। प्रथम खण्ड/7
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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