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________________ आत्मवादी विचारधारा की समर्थक थी- अर्थात् यह मानती थी कि 'आत्मा ही परमात्मा है' किन्तु कर्म-कलुषता के कारण वह सामान्य जीव के रूप में संसार में भटक रहा है' । अथर्ववेद के 15 वें काण्ड का नाम 'व्रात्य काण्ड' है जो व्रात्य परम्परा की मान्यताओं का दिग्दर्शन कराता है। आचार्य सायण के अनुसार, इस काण्ड में चर्चित 'व्रात्य' एक ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है जो वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी होता हुआ भी महान् पुण्यशाली, श्रेष्ठ विद्वान् व विश्वपूज्य अवस्था को प्राप्त हो गया है। विद्वानों के अनुसार, इस काण्ड में जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (जो मुक्ति-पथ पर अग्रसर हैं) की कठोर व्रत-साधना को प्रतीक-भाषा में चित्रित किया गया है । (द्रष्टव्यः उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 15) उक्त व्रात्य परम्परा में ही परवर्ती 'आहत', श्रमण, जैन आदि के बीज निहित हैं। प्रसिद्ध इतिहास-विज्ञ श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने व्रात्यों को 'आहत' धर्म का अनुयायी मानते हुए अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं- 'वैदिक से भिन्न मार्ग बुद्ध और महावीर से पहले भी भारतवर्ष में थे। आर्हत लोग बुद्ध से पहले भी ये... और उन आर्हतों के अनुयायी 'व्रात्य' कहलाते थे जिनका उल्लेख अथर्ववेद में हैं' (द्र. भारतीय इतिहास की रूपरेखा, 1 भाग, पृ. 52)। ऋग्वेद के एक मन्त्र में अर्हन्त परमेष्ठी को तुच्छ संसार पर दया करने वाला बताया गया है- अर्हन् इदं दयसे विश्वमभ्वं (ऋग्वेद,2/4/33/1)। जैन परम्परा में सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले 'अर्हन्त' या 'अर्हत्'/ अर्हन् देव के अनुयायी आहेत' हुए और वे ही श्रमण, समण व जैन संस्कृति के अनुयायी भी कहलाए। इन सब का प्राचीनतम रूप 'व्रात्य' परम्परा के रूप में था। प्रथम खण्ड/5
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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