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________________ पधारे। वे बालोद्यान के निकट से जा रहे थे। सहसा अतिमुक्त कुमार की दृष्टि गौतम स्वामी पर पड़ी। उसकी दृष्टि गौतम स्वामी से चिपक कर रह गई। खेल छूट गया । वह दौड़कर आया। उसने गौतम स्वामी का मार्ग रोकते हुए पूछा-" आप कौन हैं और कहां जा रहे हैं?" "मैं श्रमण हूं।" गौतम स्वामी बोले- "और भिक्षा के लिए नगर में जा रहा हूं।" "नगर में आप किसके घर जाएंगे भिक्षा के लिए?" . “घर निश्चित नहीं है। जहां भी कल्प्य आहार मिलेगा, ग्रहण करूंगा।" "आप मेरे घर चलिए। मैं भी आपको भोजन दूंगा।" गौतम स्वामी बालमन मन की भक्ति को देख रहे थे। अतिमुक्त कुमार ने गौतम स्वामी की अंगुली को अपने नन्हे हाथ में पकड़ा और अपने घर की ओर चल दिया। श्रीदेवी राजमहल के झरोखे से नगर की शोभा देख रही थी। उसकी दृष्टि गौतम स्वामी और अपने पुत्र पर पड़ी। उनका तन-बदन प्रसन्नता-पूर्ण रोमाञ्च से खिल उठा। उसने अपने भाग्य को सराहा- आज का दिन कितने अहोभाग्य का दिन है! मेरा पुत्र धर्म जहाज गौतम स्वामी को लेकर आ रहा है। उच्च भावों से श्रीदेवी ने गौतम स्वामी को आहार दिया । गौतम स्वामी लौटने लगे। अतिमुक्त ने पुनः उनका मार्ग रोकते हुए कहा-"आप कहां जा रहे हैं?" ___ "श्रीवन उपवन में मेरे गुरु महावीर ठहरे हैं। मैं उन्हीं के पास जा रहा हूं।" _ "क्या मैं भी उनके पास चल सकता हूं?'अतिमुक्त ने अपनी इच्छा प्रकट की। "क्यों नहीं! अवश्य।" गौतम स्वामी बोले। गौतम के संग अतिमुक्त भगवान् महावीर के पास पहुंचा। महावीर को देखते ही उस कोरे बाल मन पर महावीर अंकित हो गएकभी न मिटने के लिए। प्रभु की की वाणी श्रवण कर अतिमुक्त ने उन्हीं का हो जाने का निर्णय कर लिया। उसने कहा- "देव! मैं अपने माता-पिता से पूछ कर आपका शिष्य बनूंगा।' जन गर्ग ए दिक धर्म की सांस्कृतिक एकता 262)>
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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