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अतिमुक्त घर लौटा । उसने महावीर का शिष्य बनने का अपना निर्णय अपने माता-पिता को सुना दिया। पुत्र की बात सुनकर श्रीदेवी हंसी। बोली-“बेटे! तुम अभी क्या जानो कि साधुत्व क्या होता है?"
_ "जिसे मैं जानता हूं, उसे नहीं जानता हूं। और जिसे नहीं जानता हूं, उसे जानता हूं। उसे ही जानने के लिए भगवान् महावीर का शिष्य बनूंगा।' कुमार ने कहा।
पुत्र की दार्शनिक बात का अर्थ माता-पिता समझ नहीं पाए। उन्होंने पुत्र से अपनी बात स्पष्ट करने के लिए कहा। अतिमुक्त बोला
"पूज्य माता-पिता! मैं यह जानता हूं कि जो जन्मा है उसे एक दिन मरना है। लेकिन कब और कहां मरना है, यह नहीं जानता हूं। मैं यह नहीं जानता हूं कि किन कर्मों के कारण मनुष्य को कौन-सी गति मिलती है परन्तु यह जानता हूं कि मनुष्य को उसके कर्मानुसार ही गति प्राप्त होती है।"
अतिमुक्त की बातों ने माता-पिता को आश्चर्य में डाल में दिया।पुत्र के दृढ़ संकल्प के समक्ष माता-पिता को झुकना पड़ा । माता-पिता की अन्तिम इच्छा कि उनका पुत्र एक दिन के लिए राजा बन जाए,को अतिमुक्तने स्वीकार कर लिया। अतिमुक्त दूसरे दिन राजा बना।
सिंहासन पर बैठ कर अतिमुक्त ने सर्वप्रथम आदेश जारी किया कि उसकी दीक्षा की तैयारी की जाए। अन्ततः अष्टवर्षीय अतिमुक्तकुमार भगवान् महावीर के शिष्य बन गए।
एक दिन कुछ स्थविर मुनियों के साथ अतिमुक्त मुनि बाहर गए। बरसात हुई थी। जंगल में तलहटियों में पानी बह रहा था। अतिमुक्त मुनि ने पानी पर मिट्टी से पाल बांध कर पानी रोक दिया और उसमें अपना काष्ठपात्र तैरा दिया। काष्ठपात्र को जल की सतह पर तैरते हुए देखकर अतिमुक्त का बालमन चहकते हुए गा उठा
नाव तिरे, मेरी नाव तिरे!
स्थविर मुनियों ने अतिमुक्त मुनि को यों खेलते हुए देखा। मुनि-मर्यादा का यों अतिक्रमण देखकर उनके मन व्याकुल हो गए।
उन्होंने विचार किया- भगवान् महावीर सर्वज्ञ होकर भी शिष्य-मोह में नन्हे-नन्हे बालकों को मुनि बना लेते हैं। स्थविर मुनि अतिमुक्त
लियरसाद 263