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बाल-साधक गर(सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः)
विरक्ति का आधार वय-विशेष नहीं, अपितु अन्तरिक विवेक व समीचीन ज्ञान का प्रभावी होना है। इस सम्बन्ध में वैदिक व जैन परम्परा की पृथक्-पृथक् मान्यता क्या है-इस पर विचार करना प्रासंगिक होगा। वैदिक परम्परा में मूलतः आश्रम-व्यवस्था स्वीकृत थी, अतः गृहस्थ की स्थिति से व्यक्ति 50 वर्ष की आयु के बाद ही प्रव्रजित व संन्यस्त हो पााता था। किन्तु बाद में भारतीय मनीषियों ने उक्त नियम के अपवादस्वरूप किसी भी वय में प्रव्रज्या या संन्यास लेने की अनुमति दी। प्रसिद्ध शंकराचार्य ने तो 8 वर्ष की आयु में प्रव्रज्या धारण कर ली थी। जाबालोपनिषद् में स्पष्ट कहा गया है:
ब्रह्मचर्यादव प्रव्रजेद् गृहाद् वा वनाद् वा। यदहरे व विरजेद् तदहरे व प्रव्रजेत् ॥
(जाबालोप. 4) - जिस दिन विरक्ति जागृत हो जाए, उसी दिन प्रव्रजित या संन्यस्त हो जाना चाहिए। इसलिए व्यक्ति ब्रह्मचर्याश्रम से, या गृहस्थ आश्रम से या वानप्रस्थ आश्रम से, जब भी वैराग्य जागे, प्रव्रज्या ग्रहण करे।
एक नीतिकार ने इसी प्रसंग में अपनी टिप्पणी की थीनवे वयसि यः शान्तः, स शान्त इति मे मतिः । धातुषु क्षीयमाणेषु, शमः कस्य न जायते॥
(सुभाषितरत्नभाण्डागार)।
जन धर्ग पां दिक धर्म की सांस्कृतिक एकता, '2600
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