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________________ निरन्तर छ: माह तक बलराम श्रीकृष्ण की देह को अपने कन्धे पर लिए घूमते रहे। प्रबल था उनका मोह। अनेकों लोगों ने उन्हें समझाने का यत्न किया, लेकिन समझाने वालों पर बलराम क्रोधित हो उठते थे। पूर्वजन्म के एक मित्र देव ने बलराम की यह दशा देखी। मित्र की इस दुर्दशा पर मित्र का हृदय खेदखिन्न हो उठा। उसने बलराम के मोहभंग का निश्चय कर लिया। जिस मार्ग से बलराम जा रहे थे, उसी मार्ग के किनारे वह देव एक किसान का रूप बनाकर एक शिलाखण्ड पर आम का पौधा रोपने का यत्न करने लगा। किसान का यह मूर्खतापूर्ण यत्न देखकर बलराम बोले- “वाह! गौतमी को बोध प्राप्त हुआ। उसने विचार किया- "गौतमी! मृत्यु तो इस सृष्टि का नियम है। जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। फिर तेरा पुत्र मर गया तो यह कोई अपूर्व घटना नहीं घटी है। मृत्यु तो एक दिन अनिवार्य है। उसे रोक पाना असंभव है। भगवान् बुद्ध ने तुझे यही बोध देने के लिए अमर घर की सरसों लाने का निर्देश दिया है। अमर कोई हैं नहीं तो अमर घर की सरसों कहां से प्राप्त हो पाएगी।" गौतमी का मोह भंग हो चुका था। वह भगवान् बुद्ध के पास पहुंची और उन्हें प्रणाम करके बोली- "देव! मैं जान चुकी हूं कि इस संसार में कोई भी अमर नहीं है। अमरता का एकमात्र कारण धर्म है। मैं अपने पुत्र के शव का अग्नि-संस्कार करने के पश्चात् धर्म की शरण ग्रहण करूंगी।" गौतमी ने अपने पुत्र के शव का अन्तिम संस्कार किया। फिर वह तथागत के चरणों में जाकर साधनाशील हो गई। पारसी धर्मगुरु इसी सन्दर्भ में पारसी धर्म की एक अद्भुत कथानक भी यहां प्रस्तुत है एक पारसी धर्मगुरु थे। वे अपनी पत्नी और दो पुत्रों के साथ एक गांव में रहते थे। उनकी पत्नी तत्त्वज्ञा और विदुषी थी। धर्मगुरु अपने पुत्रों से अत्यन्त स्नेह करते थे। उनसे प्रेमालाप करते, साथ भोजन करते और उनके साथ टहलने निकलते। उनका जीवन उनके पुत्रों के जीवन के साथ एकाकार हो गया था। पुत्रों के बिना वे अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। एक दिन धर्मगुरु बाहर गए हुए थे। अकस्मात् एक दुर्घटना घटी। धर्मगुरु के दोनों पुत्रों की मृत्यु हो गई। घर पर माता अकेली थी। पुत्रों की मृत्यु के वज्राघात ने उसके मातृहृदय को हिला डाला। लेकिन पति की क्या दशा होगी- यह सोचकर वह संभल गई। उसने अपने दोनों पुत्रों के शवों को घर के भीतर वाले कक्ष में एक शैया पर लिटा कर उन पर वस्त्र डाल दिया। कुछ देर बाद धर्मगुरु लौटे। पुत्रों को गृहद्वार पर अपनी प्रतीक्षा करते हुए न द्वितीय खण्ड/257
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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