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________________ को मारने आएगा तो मैं उसे भी मिटा दूंगा | कृष्ण नहीं मर सकते।" बलराम जी जोर से हंसे । पुनः बोले- “कृष्ण विश्राम कर रहे हैं। निद्राधीन हैं। भाई को विश्राम से जगाना उचित न होगा। लेकिन संध्या घिर रही है। रात्री में वन में ठहरना भी तो उचित न होगा।" ऐसे विचार करते हुए विक्षिप्त बने बलराम ने श्रीकृष्ण की देह को अपने कन्धे पर रख लिया और एक दिशा में चल दिए। उन्हें यह विश्वास नहीं हो रहा था कि श्रीकृष्ण का देहान्त हो चुका है। गौतमी का मोहभंग बौद्धधर्म -साहित्य की एक कथा इस संदर्भ में उल्लेखनीय है भगवान् बुद्ध के समय की घटना है। गौतमी नाम की एक विधवा महिला का इकलौता पुत्र मर गया। गौतमी को पुत्र-मृत्यु से तीव्र आघात लगा। ममतामयी गौतमी पुत्र के शव को हृदय से चिपकाए पागल की भांति इधर-उधर भटकने लगी। उसे विश्वास था कि कोई न कोई ऐसा व्यक्ति उसे अवश्य मिलेगा जो उसके पुत्र को जीवित कर देगा। गौतमी की इस करुण दशा को देखकर किसी ने उससे कहा-"गौतमी! तुम भगवान् बुद्ध के पास चली जाओ। वे अवश्य ही तुम्हारे पुत्र को जीवित कर देंगे।" गौतमी को अन्धेरे में सूर्य-किरण के दर्शन हुए। वह मृत पुत्र को लेकर तथागत बुद्ध के समवसरण में पहुंची। पुत्र के शव को अपने बुद्ध के चरणों पर रख दिया और अश्रु बहाकर दीन स्वर में प्रार्थना करने लगी- "बुद्ध देव! आप अशरणों के शरण हैं। आप भव-सिंधु से तारने वाले परम जहाज हैं। मेरे पुत्र को जीवित करके मुझ अभागिन पर उपकार कीजिए।" बुद्ध ने गौतमी की आंखों में देखा। उनका हृदय उसकी दुर्दशा पर विह्वल हो गया। उन्होंने एक युक्ति को आधार बनाते हुए कहा- "गौतमी! तुम एक 'काम' कर दो तो तुम्हारा पुत्र जीवित हो सकता है।" "आदेश कीजिए, प्रभु!" गौतमी उत्सुकता से बोली- "अपने पुत्र के जीवन के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं।" "अमर घर की सरसों ले आइए।"बुद्ध बोले- “ऐसे घर से जहां कभी किसी की मृत्यु न हुई हो, सरसों के चन्द कण ले आइए। मैं तुम्हारे पुत्र को जीवित कर दूंगा।" बावली बनी गौतमी नगर में गई। एक द्वार पर जाकर उसने सरसों के कुछ दाने मांगे। उसे दाने मिल गए। गौतमी ने पूछा-"इस घर में कभी कोई मरा तो नहीं है?" "अभी कुछ दिन पहले ही मेरे पिता की मृत्यु हुई है।" सरसों देने वाले ने कहा। गौतमी ने सरसों के दाने लौटा दिए। दूसरे द्वार पर उसने सरसों की याचना की। उस द्वार से आवाज आई कि उसकी माता का देहान्त हुए कुछ ही समय हुआ है। ___"मेरे भाई की मृत्यु, मेरी बहन की मृत्यु, मेरे पति की मृत्यु मेरे पुत्र की मृत्यु।" द्वार-द्वार से आवाज आ रही थी। एक द्वार भी ऐसा नहीं था, जहां कोई मरा न हो। अचानक जैन धर्म परिकार्ग की सांस्कृतिक कारा 256
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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