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________________ [२] बलराम का मोह-भंग विदिक) राम और लक्ष्मण की भांति कृष्ण और बलराम का परस्पर प्रेम अद्वितीय और अनन्य था। वे दो देह और एक प्राण थे। दोनों का एक दूसरे के प्रति सम्पूर्ण समर्पण और गहन अपनत्व था। दोनों के लिए एक दूसरे के बिना जीने की कल्पना अकल्प्य थी। समय का चक्कर गाड़ी के पहिए की भांति घूमता रहता है। एक क्षण जो आरा ऊपर होता है, दूसरे ही क्षण वह नीचे आ जाता है। जीवन में भी यही सत्य घटित होताहै। एक समय जो मनुष्य अनन्त ऊंचाइयों का स्पर्श करता है, दूसरे ही क्षण वह रसातल में भी पहुंच जाता है। यदुवंश और द्वारिका के विनाश के पश्चात्, श्रीकृष्ण और बलराम पाण्डुमथुरा की ओर चल पड़े। मार्ग में कौशाम्बी वन था। अपरिमितबली श्रीकृष्ण थक गए। वे एक शिलाखण्ड को सिर के नीचे लगा कर लेट गए। उन्होंने बलराम से पानी लाने को कहा । बलराम चले गए। श्रीकृष्ण का दायां पैर बाएं पैर पर रखा हुआ था। उनके पैर में स्थित पदमरत्न को मृग की आंख और पीताम्बर को मृग की देह समझ कर जराकुमार ने तीर चला दिया। निशाना अचूक था । मर्मस्थल पर भयंकर पीड़ा हुई। जरा कुमार श्रीकृष्ण के पास पहुंचा। अपनी भूल पर उसे भारी दुःख हुआ। श्रीकृष्ण ने करुणार्द्र होकर कहा-"जराकुमार! भाग जा यहां से | बलराम आने वाले हैं। मेरी मृत्यु और हंता को वे सह नहीं पाएंगे। तुम चले जाओ।" कहकर श्रीकृष्ण ने श्वास गति को विराम दे दिया।जराकुमार भी भाग गया। बलराम कुछ देर बाद लौटे। श्रीकृष्ण जी जैसे भाई की मृत्यु देखकर उनका अन्तस् हिल उठा। वे रोने लगे। अनन्त पीड़ा थी उनके रोदन में। वन प्रान्तर का कण-कण शोकमग्न हो गया। बहुत देर तक बलराम रोते रहे। फिर सहसा बलराम जी के आंसू सूख गए। उन्होंने खड़े होकर भूमि पर पादप्रहार किया और बोले- "सब मिट सकता है, लेकिन श्रीकृष्ण नहीं मिट सकते। स्वयं यमराज भी प्रलय का फन्दा लेकर कृष्ण
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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