SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महान् स्वप्न देखकर एक-एक पुत्र को जन्म दिया। महारानी विजया के पुत्र का नाम अजित तथा यशोमती के पुत्र का नाम सगर रखा गया। अजित और सगर युवा हुए। पुत्र को योग्य जानकर महाराज विजय ने राज्य का भार अजित को सोंपकर स्वयं आर्हती दीक्षा धारण कर ली। सुमित्र ने भी अपने भाई का अनुगमन किया। अजित ने बहुत वर्षों तक कुशलता और न्यायशीलता से राज्य किया। भोगावलि कर्मों की समाप्ति पर अजित ने एक वर्ष तक वर्षीदान देकर दीक्षा धारण की। वे द्वितीय तीर्थंकर बने। अयोध्या के राजा सगर बने। आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ। महाराज सगर छः खण्ड को जीतने के लिए चल दिए। सगर के साठ हजार पुत्र थे। पिता की दिग्विजय में पुत्रों का योगदान भी उल्लेखनीय रहा। छः खण्डों को जीतकर सगर ने द्वितीय चक्रवर्ती का पद पाया। सगर का सम्पूर्ण पृथ्वी पर अखण्ड शासन था । एक घटना ने उनके जीवन की गति बदल दी। सगर के साठ हजार पुत्रों ने एक बार विश्व भ्रमण-दर्शन का विचार किया। पिता से आज्ञा मांगी। सगर ने पुत्रों के विचार का समर्थन किया । चक्रवर्ती के ज्येष्ठ पुत्र जान्हुकुमार के नेतृत्व में साठ हजार चक्रवर्ती-पुत्र विश्व-दर्शन के लिए चल दिए। प्राकृतिक स्थलों, वनों, उपवनों, नगरों, पर्वतों आदि का सौन्दर्य देखते हुए चक्रवर्ती-पुत्र अष्टापद पर्वत पर पहुंचे । अष्टापद पर्वत पर प्रकृति सौन्दर्य का परिधान ओढ़े नृत्य कर रही थी। जान्हुकुमार आदि साठ हजार भाई इस सौन्दर्य में खो गए। जान्हुकुमार के मन में एक विचार जागाइस प्राकृतिक सौन्दर्य को स्थिर रखने के लिए कुछ करना चाहिए। भाइयों से विमर्श करके उसने अष्टापद की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर खाई खोदने का निश्चय कर लिया। खाई खोदने के लिए चक्रवर्ती का दण्डरत्न काम में लिया गया। दण्ड-प्रहारों से नागकुमार देवों के भवन क्षतिग्रस्त होने लगे। एक देव ने आकर चक्रवर्ती-पुत्रों को इसके विरूद्ध चेतावनी दी। लेकिन अभिमानी चक्रवर्ती-पुत्रों ने नागकुमार देवों की बात अनसुनी करते हुए खाई में गंगा नदी का प्रवाह मोड़ दिया। नागकुमार देवों के भवन जलमग्न हो गए। उन्होंने क्रोधित होकर भयानक अग्नि जलाकर जान्हुकुमार आदि साठ हजार सिनीय रखाड.253
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy