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मोह-विजय दुर
(सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः)
मोह बन्धन है | सम्पूर्ण जगत् मोह से बंधा है। मोह आदि, मध्य और अन्त तीनों अवस्थाओं में अशान्ति- असंतोष और दुःख देने वाला है। जैन सूत्रों की भाषा में
मोहमूलाणि दुक्खाणि । (इसिभासिय- 2 / 7 )
मोह समस्त दुःखों का उद्गम- मूल है। यही बात संत कवि तुलसीदास ने भी दोहराई थी
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ॥
जैन परम्परा का स्पष्ट उद्घोष है कि मोह से कर्म-बन्धन, उससे जन्म-मरण व दुःख की उत्पत्ति होती है- कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति (उत्तरा. सू. 32 / 7)। अतः मोह के नष्ट होने पर भावी दुःखपरम्परा का स्वतः अन्त होना मान लिया जाता है- दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो (उत्तरा. सू. 32/8)।
बौद्ध परम्परा में भी 'मोह' की निन्दा एक स्वर में की गई है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं:- मोहो अकुसलमूलं (मज्झिमनिकाय, 1/ 8/2) । अर्थात् मोह पाप का मूल है । नत्थि मोहसमं जालं (धम्मपद, 18/ 17) - अर्थात् मोह के समान कोई जंजाल नहीं है । महात्मा बुद्ध ने अपने
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