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________________ जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः, जानामि अधर्मं न च मे निवृत्तिः। श्री कृष्ण! मैं धर्म को जानता हूं परन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है। मैं अधर्म को भी जानता हूं परन्तु उससे मेरी निवृत्ति नहीं है। अतः मैं सूई की नोक पर आये उतनी भूमि भी पांडवों को नहीं दूंगा। दुर्योधन अपनी जिद्द पर अड़ा रहा । परिणाम-स्वरूप महाभारत का घोर विनाशकारी युद्ध हुआ। श्री कृष्ण ने स्वयं दुर्योधन की उक्त हठधर्मिता और मोहग्रस्तता का बखान इस प्रकार किया है- न च ते जातसंमोहाः वचोऽगृहणन्त मे हितम् (महाभारत- 14/54/20) अर्थात् दुर्योधन आदि सभी मोहग्रस्त थे, अतः उन्होंने हितकारी बातें भी मेरी नहीं सुनीं। अंततः सम्पूर्ण भारतवर्ष दो भागों में बंट गया। कर्मयोगी श्री कृष्ण ने पाण्डवों का पक्ष लिया। उन्होंने युद्ध नहीं किया, परन्तु युद्ध का निर्देशन उनके हाथ में था। श्री कृष्ण के कुशल नेतृत्व में पाण्डवों ने कौरवों की विशाल और अजेय सैन्य शक्ति को परास्त कर दिया। राज्य का लोभी और परम अहंकारी दुर्योधन अपने पूर्वजों भाइयों, पुत्रों, दोस्तों और सहायकों सहित नाश को प्राप्त हो गया। 000 समस्त संसार को 'अध्यात्म' का प्रकाश देने में भारतवर्ष को अग्रणी होने का गौरव प्राप्त है। अध्यात्मसाधना के लिए भारतवर्ष एक उर्वरा भूमि है। यहां की संस्कृति अध्यात्मप्रधान है। अध्यात्मसाधकों की एक लम्बी परम्परा यहां अनवरत रूप से प्रवर्तमान रही है। यहां मानव का अन्तिम पुरुषार्थ-लक्ष्य 'मोक्ष' की प्राप्ति माना गया है। अध्यात्म-साधना व कामभोग-सेवन - ये दोनों विपरीत प्रवृत्तियां हैं। किन्तु कामभोग लुभावने होते हैं और कामनाओं की क्षणिक शान्ति के लिए सामान्य व्यक्ति इनकी आसक्ति में बंधता है। फलस्वरूप, लौकिक व पारलौकिक- दोनों दृष्टियों से दुखदायी परिणामों को वह जैन धर्म एव वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/248
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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