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.. राजा पाण्डु की असमय में मृत्यु हो गई। उनके पुत्र युधिष्ठिर इतने छोटे थे कि वे शासन नहीं संभाल सकते थे। अतः सिंहासन के संचालन का दायित्व धृतराष्ट्र को प्राप्त हो गया। धृतराष्ट्र का सपना पूर्ण हो गया। वह सिंहासन के मोह में पूर्णतया डूब गया । वह प्रयास करने लगा कि . उसका उत्तराधिकार उसके पुत्र दुर्योधन को प्राप्त हो।
दुर्योधन दुष्ट और अहंकारी था। शकुनी आदि छल-विद्यामर्मज्ञों के सहयोग ने उसकी दुष्टता को और बढ़ा दिया। वह पाण्डवों को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगा। उसने प्रयत्न पर प्रयत्न किए। कभी उसने भीम को विष खिलाकर यमुना में बहा दिया तो कभी लाक्षागृह का दुष्ट जाल रचा। लेकिन उसे अपने प्रत्येक प्रयत्न में मुंह की खानी पड़ी।
धृतराष्ट्र और दुर्योधन की भयंकर राज्यलिप्सा से विवश होकर पितामह भीष्म को हस्तिनापुर साम्राज्य को दो खण्डों में विभक्त करना पड़ा। युधिष्ठिर आधे राज्य से ही संतुष्ट हो गए। परन्तु दुर्योधन सन्तुष्ट न हुआ। पाण्डवों को प्राप्त इन्द्रप्रस्थ को भी वह अपने राज्य में मिलाना चाहता था। तलवार के बल पर वह पाण्डवों को पराजित नहीं कर सकता था। उसने छल-बल का आश्रय लिया । द्यूत-क्रीड़ा का आयोजन करके उसने पाण्डवों को राजा से रंक बना दिया। इससे ही उसे संतोष नहीं हुआ। उसने पाण्डवों की अर्धांगिनी द्रौपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करने का निकृष्टतम प्रयास भी किया।
पाण्डव दुर्योधन को पुनः पुनः क्षमा करते रहे। वे अपनी अच्छाई से दुर्योधन की बुराई मिटाना चाहते थे। लेकिन अधर्म का प्रतिरूप दुर्योधन बदला नहीं। पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास मिला | वनवास काल में भी दुर्योधन पाण्डवों को कष्ट देता रहा।
वनवास के उपरान्त पाण्डवों ने अपना राज्य दुर्योधन से मांगा। दुर्योधन ने एक सूई की नोक टिके- इतना राज्य भी देने से इन्कार कर दिया। धर्मज्ञों, नीतिज्ञों और बुजुर्गों ने उसे समझाया। इतना ही नहीं, स्वयं श्री कृष्ण दुर्योधन को समझाने के लिए गये। उन्होंने दुर्योधन को धर्म-कर्म, राजनीति, लोकनीति आदि अनेक तरह से समझाया। कहा- वह पांडवों का हक दे दे। हठाग्रही दुर्योधन नहीं माना। श्री कृष्ण उसे फिर भी समझाते रहे। श्री कृष्ण के तर्कों का उत्तर उसके पास न था। अन्ततः दुर्योधन बोला