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इस श्लोकपूर्ति से ग्वाला गद्गद हो गया और चक्रवर्ती के आधे राज्य को पाने के प्रलोभन में दौड़कर राजा के पास पहुंचा। उसने ब्रह्मदत्त को पूरा श्लोक सुनाया जिसे सुनकर ब्रह्मदत्त मोहाभिभूत बनकर अचेत हो गया। चक्रवर्ती की अचेतावस्था के लिए सैनिकों ने ग्वाले को उत्तरदायी मानकर बन्दी बना लिया। ग्वाले ने भय से कांपते हुए उगल दिया कि श्लोक की पूर्ति उसने नहीं, बल्कि एक मुनि ने की है।
ब्रह्मदत्त स्वस्थ हुए और शीघ्र ही मुनि के पास पहुंचे। दोनों भाई परस्पर मिले । ब्रह्मदत्त ने मुनि को आधा राज्य देने का आग्रह किया। मुनि ने उसे अस्वीकार कर दिया। मुनि ने ब्रह्मदत्त को धर्मोपदेश दिया और संयम अपनाने की प्रेरणा दी। मुनि बोले- राजन्! जीव जो कर्म करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। कर्म-फल भोगे बिना जीव का छुटकारा नहीं होता। यह आत्मा अनन्त काल से संसार में जन्म-मरण कर रहा है। संसार का कोई ऐसा सुख और दुःख नहीं है जो इसने न भोगापाया हो। तुमने और मैंने पूर्व के छह जन्म साथ बितायें हैं। उन जन्मों में संसार के अनेक रूप देखे, परन्तु यह तृष्णा शान्त नहीं हुई। राजन्! यह स्मरण रहे संसार के रूप गीत, विलाप में बदलते हैं। सभी नृत्य-नाटक विडम्बनायें हैं। शरीर को सजाने वाले आभूषण, अन्त में भार सिद्ध होते हैं। सभी काम-भोग अन्त में दुःख सिद्ध होते हैं।
यह जीवन अशाश्वत है, क्षणिक है, नाशवान् है। वे लोग अज्ञानी हैं जो बिना धर्म किये ही परलोक को जाते हैं। परलोक जाते इस जीव का कोई सम्बन्धी, साथी, मित्र और प्रिय ऐसा नहीं होता जो उसका सहारा बन सके। इसलिए हे पंचाल राजा! तुम मेरी बात को सुनो, महालय गुरूतरघोरपाप कर्म मत करो।
मुनि की बात सुनकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने कहाअहंपि जाणामि जहेह साहु! जे मे तुमं साहसि वक्कमेयं । भोगा इमे संगकरा हवन्ति, जे दुज्जया अज्जो! अम्हारिसेहिं॥
(उत्तराध्ययन सूत्र 13/27) हे मुने! आप मुझे जो यह उपदेश दे रहे हो, उसे मैं समझता हूं, परन्तु मैं काम-भोगों में इस प्रकार फंसा हूं कि उन्हें छोड़ नहीं सकता। जिस प्रकार दलदल में फंसा हुआ हाथी, दूर किनारे को देखता तो है परन्तु
द्वितीय खण्ड/245