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________________ [१] ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त नाम के एक चक्रवर्ती थे। छह खण्ड पर उनका शासन था । संसार के समस्त सुखभोग उन्हें प्राप्त थे। ब्रह्मदत्त सुखों और भोगों में डूबा रहता। उसे धर्म-कर्म की कभी याद भी न आती। एक बार वह नाटक देख रहा था। नाटक में जो दृश्य दिखाये गये, उन्हें देखकर चक्रवर्ती सोच में डूब गया। उसे लगने लगा- जैसे यह सब उसने पहले कहीं देखा है। नाटक कब खत्म हुआ उसे पता ज चला। वह अपने में डूबा रहा। एक दिन जब वह इस चिन्तन में डूबा था तो उसे जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हो गया। जाति स्मरण ज्ञान पूर्व जन्मों के ज्ञान को कहते हैं। उस ज्ञान में ब्रह्मदत्त को अपने कई जन्म दिखाई पड़े। उन पूर्वजन्मों में उसने जाना- मैं पूर्वजन्म में संभूत नाम का मुनि था। मेरे बड़े भाई थे- चित्त मुनि! मैंने और चित्त मुनि ने छह जन्म साथ-साथ बिताये थे। अब चित्त मुनि कहां है, यह जिज्ञासा उसके मन में जागी। वह बेचैन हो उठा अपने उस पूर्व जन्म के भ्राता से मिलने को | चित्त को खोज निकालने के लिए उसने एक उपक्रम किया। उसने एक श्लोकार्ध की रचना कर उसे प्रचारित करवा दिया। यह भी घोषणा करवा दी कि जो कोई इस श्लोक को पूर्ण करेगा, उसे वह अपना आधा राज्य देगा। श्लोकार्ध में चित्त और संभूति के पूर्व के छह भवों का सांकेतिक अर्थ निहित था। जन-जन के मुख पर श्लोकार्ध व्याप्त हो गया। उधर चित्त का जीव पुरिमताल नगर में श्रेष्ठी पुत्र के रूप में युवा हुआ तो उसने मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली। एक बार वे मुनि विहार करते हुए कंपिलपुर के एक उद्यान में आए। वहां एक ग्वाला उक्त श्लोकार्ध को दोहरा रहा था। वह श्लोकार्ध था आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा। मुनि ज्ञानी थे। उन्हें भी पूर्वजन्मों का ज्ञान था। अतः उन्होंने उस श्लोकार्ध को सुनकर उसे पूरा कर दिया। उस श्लोकार्ध की पंक्तियां थींएषा नो षष्ठिका जातिः अन्योन्याभ्यां विमुक्तयोः। .. जैन धर्ग एणां प्रेदिक धर्म की सांस्कृतिक एका 244- -
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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