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________________ अपनी अविवेक बुद्धि को धिक्कारा। शालिग्राम जी की अर्चना की। अब उसे अपने कर्म से घृणा हो गई। उसने निश्चय कर लिया कि भूखों मर जाऊंगा, लेकिन मांस का व्यवसाय नहीं करूंगा । शालिग्राम को लेकर सदन जगन्नाथ पुरी की ओर चल पड़ा। मार्ग में संध्या घिरने पर सदन एक ग्राम में एक गृहस्थ के घर रात्री - विश्राम के लिए ठहरा । रात्री को गृहस्थ की पत्नी सदन के रूप-यौवन पर आसक्त हो गई। उसके पास आकर उसने हावों भावों से अपने हृदय के कुत्सित विचार प्रगट किए। सदन तो भगवद्भक्त था । वह ऐसा दूषित प्रस्ताव कैसे स्वीकार करता? उसने उस स्त्री को समझाया - "मां ! मुझे क्षमा करो। मैं तो तुम्हारा पुत्र हूं। कुत्सित विचारों का त्याग कीजिए । " स्त्री ने सोचा कि सदन उसके पति से घबरा रहा है। उसने तलवार निकाली और अपने पति का सिर काट दिया । फिर सदन के पास आकर वही प्रस्ताव रखा। सदन ने उसके प्रस्ताव को कठिन शब्दों में ठुकरा दिया । स्त्री जल उठी । उसने त्रियाचरित्र प्रदर्शित करते हुए जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। लोग एकत्र हो गए। वह बोली- 'यह यात्री मुझसे बलात्कार करने की चेष्टा कर रहा है। इसने मेरे पति का वध कर दिया है ।' लोगों ने उस स्त्री की बात पर विश्वास कर लिया। सदन को पकड़कर राजा के पास ले गए। राजा ने सदन के दोनों हाथ कटवा दिए। सदन ने कोई सफाई नहीं दी । न ही उसने भगवान् से कोई शिकायत की। पर भी वह प्रसन्न था । वह जगन्नाथपुरी की ओर चल पड़ा। उधर प्रभु ने पुरी के पुजारी को स्वप्न में आदेश दिया- मेरा भक्त सदन मेरे पास आ रहा है। उसके हाथ कट गए हैं। पालकी लेकर जाओ और उसे आदरपूर्वक ले आओ। सदन को पालकी में लाया गया। सदन ने जैसे ही भगवान् जगन्नाथ को दण्डवत् प्रणाम करके भुजाएं कीर्तन के लिए उपर उठाईं, उसके हाथ पूर्ववत् ठीक हो गए। सदन ने इसे प्रभु का प्रसाद माना, , लेकिन उसके हृदय में एक शंका बनी रही कि मुझ निरपराध के हाथ क्यों काटे गए। मैंने तो जीवन में कोई पाप नहीं किया । रात्री में भगवान् ने स्वप्न में प्रगट होकर सदन से कहा"मेरे भक्त! प्रभु के राज्य में कोई निरपराध दण्डित नहीं होता । तुम्हारी सोच जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 2401
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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