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________________ [२] सदन कसाई (वैदिक) प्रकृति की गति विचित्र है। कभी-कभी उच्च कुल में पापात्मा उत्पन्न हो जाते हैं तो कभी निम्न कुल में पुण्यात्मा। मनुष्य की श्रेष्ठता या अश्रेष्ठता उसके कुल पर नहीं, अपितु उसके कर्म पर निर्भर करती है। मनुष्य कर्म से महान् बनता है, कुल से नहीं। सदन का जन्म कसाई कुल में हुआ था। लेकिन वह परमात्मा के ध्यान में सदा लीन रहता था। युवा होने पर सदन को व्यवसाय करना पड़ा। कुछ व्यवसाय न मिलने पर उन्हें पैतृक व्यवसाय अपनाना पड़ा। वह जीववध तो नहीं कर सकता था। परन्तु मांस खरीदता और बेचता था। उसकी रोजी चलने लगी। ' मांस का व्यवसाय करते हुए भी सदन प्रभु-भजन में लीन रहता था। उसे अपना व्यवसाय पसन्द न था । वह मन मारकर यह कार्य करता था। हरि का नाम प्रतिपल उसके हृदय में रहता था। कहते हैं, भगवान् मनुष्य के हृदय को देखते हैं, बाह्य कार्य को नहीं। सदन की दुकान पर मांस तोलने के लिए एक शालिग्राम था। भगवान् उस शालिग्राम में निवास करने लगे। .. एक दिन सदन की दुकान के सामने से एक संत निकल रहे थे। उनकी दृष्टि शालिग्राम पर पड़ी। वे शालिग्राम को पहचान गए। उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने सदन से वह शालिग्राम मांग लिया। सदन ने सहर्ष वह चमकीला बाट संत को दे दिया। संत शालिग्राम को अपनी कुटिया पर ले गए। उन्होंने विधिपूर्वक - उसकी पूजा की। रात्री में संत ने एक स्वप्न देखा । स्वप्न में भगवान् बोले “तुम मुझे यहां क्यों ले आए हो। मुझे तो वहीं मेरे भक्त के पास बड़ा सुख मिलता था। उसके करस्पर्श में बड़ी शीतलता थी। उसके गान से माधुर्य टपकता था। तुम मुझे वहीं पहुंचा दो।" सुबह वे संत शालिग्राम को लेकर सदन के पास पहुंचे और उसे वह ईश्वर रूप शालिग्राम प्रदान करते हुए उसकी महिमा बताई। सदन गीय र 239
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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