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विशेषता को रेखांकित करनेवाला आन्तरिक घटक है । वह व्यक्तिव्यक्ति के मध्य सम्बन्ध का नियामक है और परिवार, समाज व राष्ट्र को एकसूत्रता में बांधने की क्षमता रखता है।
दोनों धर्मों/संस्कृतियों का मौलिक स्वरूप
भारतीय संस्कृति की संघटक विभिन्न विचारधाराओं को प्रमुख रूप से दो प्रमुख वर्गों में बांटा जा सकता है। वे हैं- (1) यीय संस्कृति तथा (2) आत्मविद्या-प्रधान संस्कृति । इनमें वैदिक धर्म व वैदिक संस्कृति में मूलतः यज्ञीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व दृष्टिगोचर होता है तो जैन (श्रमण) धर्म व जैन संस्कृति के मूल में आत्मविद्या की प्रधानता है। कुछ विद्वानों के मत में वैदिक संस्कृति मूल में प्रवृत्तिप्रधान धर्म से जुड़ी है तो जैन संस्कृति मूलतः निवृत्तिप्रधान धर्म को आत्मसात् किए हुए है। सर्वप्रथम, दोनों धर्मों की मौलिक मान्यताओं को प्रमुख वैचारिक बिन्दुओं के रूप में उपस्थापित करना उपयोगी होगावैदिक धर्म/संस्कृति की मान्यता
जैन धर्म/संस्कृति की मान्यता 1. धर्म-आचार के विषय में वेद की ही सर्वोच्च 1. सर्वज्ञ तीर्थंकर और उसकी वाणी की सर्वोच्च प्रामाणिकता है।
प्रामाणिकता है। 2. यज्ञीय विधान को प्राथमिकता और 2. तप व कर्म-नाशक विधि-विधानों की उसमें हिंसा भी मान्य है।
प्राथमिकता और प्रत्येक कार्य में अहिंसा को
यथाशक्ति प्रमुखता देना। 3. सृष्टि दैवी शक्तियों से संचालित/नियन्त्रित 3. सृष्टि अनादि व अनन्त है। ईश्वर या है, और सष्टिकर्ता ईश्वर है- यह मानना। परमेश्वर वह सर्वोत्कृष्ट आत्मा है जो
वीतराग हो और कर्म-कलंक से शुद्ध हो। 4. ईश्वर संसार पर करूणा कर, धर्म-मर्यादा की 4. ईश्वर वीतराग होता है और सांसारिक कार्यों स्थापना हेतु अवतार लेता है और दुष्ट-संहार व से अस्पृष्ट रहता है। भक्त-त्राण करता है। 5. वर्ण-व्यवस्था व आश्रम-व्यवस्था के अनुरूप 5. जाति तात्त्विक नहीं है। संन्यास किसी भी जीवन-चर्या को समर्थन (अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, आयु में स्वीकार किया ना सकता है। संन्यास- इनका क्रमशः पालन)।
प्रथम खण्ड/3