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________________ "ले जा अपना थाल । गणिका के दान से भगवान् का मंदिर नहीं बनेगा।'' एक युवा साधु गरजा। जिसका डर था, वही हुआ। "हां मैं गणिका हूं परन्तु गंगा मुझसे घृणा नहीं करती। जब "भिक्षु ! तुम्हारे रूप-यौवन ने मुझे तुम्हारी दीवानी बना दिया है।" वासवदत्ता ने कहा- "मैं तुम्हें लेने आई हूं। मेरे महल पर चलो। तुम्हारा यह सुकोमल शरीर सख्त पृथ्वी पर सोने के लिए नहीं है। मेरे महल की कीमती कालीन तुम्हारी चरण-रज को पाकर धन्य हो जाएगी। स्वर्ण शैया तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। भिक्षु ! चलो मैं स्वयं तुम्हें लेने आई हूं। मैं वासवदत्ता!" निष्काम भिक्षु उपगुप्त ने वासवदत्ता की आंखों से झांका। उन आंखों में वासना की आंधी थी। उपगुप्त को लगा- वासवदत्ता को बोध देने का यह उपयुक्त क्षण नहीं है। वे बोले"वासवदत्ते! अभी तुम लौट जाओ। मैं तुम्हारा आमंत्रण स्वीकार करता हूं। उपयुक्त समय पर मैं अवश्य तुम्हारे पास आऊंगा।" "मैं उस उपयुक्त समय की प्राण-पण से प्रतीक्षा करूंगी।" वासवदत्ता बोली"अपने वचन का पालन करना भिक्षु ! मैं तुम्हारे आगमन की आशा का दीप अपने हृदय में जलाकर जा रही हूं।" वासवदत्ता अपने भवन को लौट गई। वह प्रतिदिन अपने महल की ओर आने वाले मार्ग पर आंखें बिछाए उपगुप्त की प्रतीक्षा किया करती थी। बहुत समय अतीत हो गया। ठीक तीन वर्ष के पश्चात्, भिक्षु उपगुप्त निर्जन वन से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि पथ के किनारे एक प्रौढ़ा स्त्री अचेत पड़ी है। उसके चेहरे पर चेचक फूट आई है और उस पर मक्खियां भिनभिना रही हैं। वातावरण दुर्गन्धयुक्त है। भिक्षु का कोमल हृदय करुणा रस से छलक उठा। वे शीघ्र कदमों से निकट ही एक जलाशय से जल लेकर आए। उन्होंने अपने हाथों से उस महिला की देह को धोया। शीतल जल के स्पर्श से उस महिला की चेतना लौट आई। उसने आंखें खोली। देखा- भिक्षु उपगुप्त उसकी परिचर्या कर रहे हैं। भिक्षु उपगुप्त ने भी वासवदत्ता को पहचान लिया था। वे बोले- "देवि! मैंने अपना वचन पूर्ण कर दिया है। यही वह उपयुक्त समय है जब तुम्हें मेरी आवश्यकता है।" "अब मेरे पास बचा ही क्या है?" वासवदत्ता बोली- "चेचक ने मेरा रूप विद्रूप कर दिया है। उन्हीं लोगों ने मुझे यहां ला पटका है जो मेरे रूप पर लुब्ध भंवरों की भांति मंडराया करते थे।" "रूप और यौवन तो अस्थिर है, देवि!" उपगुप्त बोले- “आत्मा अनश्वर और अमिट है। आत्मसौन्दर्य ही परमसौन्दर्य है। अपनी आत्मा को समझो। परम सौन्दर्य को प्राप्त करो। अपने अन्तर्चक्षु खोलो। तुम्हारा आत्म-सौन्दर्य ही तुम्हारे भीतर परमात्मा को प्रगट करेगा।" भिक्षु उपगुप्त के सामयिक उपदेश से वासवदत्ता के भीतर ज्योति प्रगट हुई। अन्तर्ज्योति प्राप्त करके वह भिक्षुणी-संघ में सम्मिलित हो गई। आत्मसाधना करके उसने अपनी आत्मा का उद्धार किया। D P जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/230
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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