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भी मैं उसके पास गई, उसने मेरे रोम-रोम में शीतलता भर दी । सुना था कि सन्त तो गंगा से भी अधिक पवित्र होते हैं। यदि आप भी मुझसे घृणा करते हैं तो फिर मेरे उद्धार की क्या आशा!'' गणिका का कण्ठ भर्रा आया। आंखों से आंसू बहने लगे। उसने अपनी थाली उठाई और वापिस मुड़ी। तभी वृद्ध साधु का अमृत-स्वर उसके कानों तक पहुंचा, “तू उस मंदिर का कलश बनवा दे।'' गणिका को सहसा अपने कानों पर विश्वास न हुआ।
“यह क्या कह रहे हैं गुरुदेव? पहले ही कलश स्थापित करने में कठिनाई आ रही है ! यदि गणिका के धन से वह बना, तो हो सकता है सारा मंदिर ही गिर पड़े।'' युवा साधु ने आक्रोशपूर्ण स्वर में कहा।
“मैं सब कुछ सोच-समझ कर कह रहा हूं।" वृद्ध साधु का गम्भीर स्वर दृढ़ता से परिपूर्ण था, "मंदिर का कलश इसी के धन से बनेगा। यही नहीं, पहले यह उसे अपने हाथों से छूएगी। तब वह ऊपर चढ़ेगा।"
"अनर्थ! घोर अनर्थ!' युवा साधु ने सोचा । गुरु-कोप के भय से उसने कुछ कहा नहीं, परन्तु मुख-मुद्रा पर ये भाव स्पष्टतः अंकित थे।
_ "यह तो हुई मंदिर की बात । अब ये बता, इस बूढ़े साधु को भी कुछ देगी?"
"आज्ञा दें महाराज! दे सकी तो अवश्य दूंगी।"
"तो फिर ला! अपनी गणिका-वृत्ति मेरी झोली में डाल दे।'' साधु ने झोली फैला दी। गणिका ने पल-भर का भी विलम्ब न किया। तत्काल धुंघरू उठाये और झोली में डाल दिये।
साधु गणिका का धन लेकर चले गए। मंदिर का भव्य रत्नजडित कलश बना । उसे चढ़ाने से पहले गणिका आई। डरते-डरते कलश को छुआ और तत्काल अपना हाथ हटा लिया, मानो उसके अधिक छूने से कलश अधिक अपवित्र हो जायेगा । कलश चढ़ाया गया । युवा साधु इस आशा से टकटकी लगाये देख रहा था कि कलश अब गिरा... अब गिरा...! परन्तु देखकर वह चकित रह गया- जो कलश पहले दो बार गिर चुका था, वह मंदिर के शिखर पर चढ़ा हुआ था। सूर्य की रोशनी में जगमगा रहा था। इतना कि उस पर नजर न ठहरती थी। उसने मलते हुए आंखें नीचे की। अरे! यह क्या! उसने देखा
द्वितीय खण्ड/231