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________________ चरणों में रख दी। इतना द्रव्य! सन्तों को उसकी आस्था पर हर्ष हुआ और उसकी उदारता पर आश्चर्य । वे पूछ बैठे, 'तुम करती क्या हो देवी?' यह प्रश्र गणिका के हृदय में तीर-सा चुभा । इसी प्रश्न से वह डर रही थी और यही सामने था। उत्तर मांगा जा रहा था। क्या वह झूठ बोल दे? क्या वह सत्य बता दे? संभव है- सत्य सुनकर साधु उसकी भेंट ठुकरा दें।जीवन में पहली बार साधुओं के चरण जिस द्वार पर पड़े हैं, संभव है वह आज भी हतभाग्य रह जाये। संभव है कि वरदान का यह अवसर अभिशाप में बदल जाये। कुछ भी हो, वह असत्य कहने का पाप नहीं करेगी, गणिका ने अंतर्द्वद्व को यह संकल्प करते हुए विराम दे दिया। हाथ जोड़कर कहा- “मैं पापिन हूं महाराज! शरीर बेचती हूं।' गणिका वासवदत्ता बौद्ध साहित्य की एक प्रसिद्ध कथा है: मथुरा नगरी में वासवदत्ता नाम की एक गणिका रहती थी। वह परम रूपवती और चतुर थी। उसके पास अपार लक्ष्मी थी। उस युग के राजा, राजकुमार और बड़े-बड़े धनपति सेठ वासवदत्ता के रूप के दीवाने थे। वासवदत्ता को अपने रूप और यौवन पर अहंकार था। उसकी सोच थी कि सौन्दर्य से प्रत्येक वस्तु खरीदी जा सकती है। एक दिन वासवदत्ता अपने महल के गवाक्ष में खड़ी नगर की शोभा देख रही थी। उसकी दष्टि एक युवा भिक्षु पर पड़ी। महान् रूपवान् उस भिक्षु को देखकर वासवदत्ता अपना भान भूल बैठी। एकटक दृष्टि से वह उसे तब तक निहारती रही जब तक वह उसकी दृष्टि से ओझल न हो गया। वासवदत्ता ने अपनी दासी को भेजकर उस भिक्षु का नाम-स्थान ज्ञात किया। उसे मालूम पड़ा कि उस भिक्षु का नाम उपगुप्त है। वह बौद्ध-विहार में प्रवास पर है। परमात्मा को पाने के लिए वह महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के अनुरूप जीवन को जीता है। अर्ध-रात्री की वेला में जब पूरी मथुरा नगरी निद्राधीन थी, एक स्वर्णथाल में दीपक जलाकर वासवदत्ता बौद्ध-विहार में पहुंची। उसके पैरों में बंधे नूपुरों से रूनझुन-रूनझुन की ध्वनि निकल रही थी। वासवदत्ता के कदम भिक्षु उपगुप्त के आसन तक पहुंच चुके थे। उसने दीपक के प्रकाश में भिक्षु के तेजस्वी आनन को देखा। अपलक देखा। उपगुप्त की निद्रा टूट गई। वे उठ बैठे और बोले- "देवि! कौन हो तुम और इतनी रात में यहां किसलिए आई हो?" "तुम मुझे नहीं जानते?" वासवदत्ता के स्वर में वासनायुक्त माधुर्य था- "इस देश का प्रत्येक युवक मुझे जानता है। मैं वासवदत्ता हूं। बड़े-बड़े राजा और धनाढ्य युवक मेरे भवन के चक्कर लगाया करते हैं।" "मुझसे क्या चाहती हो?" उपगुप्त ने सहज-शान्त स्वर में पूछा। द्वितीय खण्ड/229
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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