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________________ "वाह! वाह! महान कला!” रथिक ताली बजाते हुए बोला"अतुल्य है तुम्हारी कला | बेजोड़ है तुम्हारा नृत्य, कोशा!'' “यह कला कुछ नहीं है। कोशा बोली- "असली कला सीखनी है तो स्थूलभद्र से सीखो। वे महानतम कलाकार हैं।" "उनकी कला की क्या विशेषता है?" रथिक ने पूछा। कोशा ने स्थूलभद्र की आद्योपान्त जीवन-कथा सुनाते हुए कहा- "वह मन को साधना जानता है। और मन को साधना ही महान् कला है।" - रथिक पर कोशा की बात का गहरा असर हुआ। कोशा के अन्तर्हृदय में जल रही ज्ञान-ज्योति से अपने हृदय-दीप को प्रज्ज्वलित करके मन को साधने की महाकला सीखने के लिए वह रथिक स्थूलभद्र के पास चला गया और उनका शिष्य बनकर महान् कलाकार बन गया।[कल्पसूत्र की कल्पद्रुमकलिका व्याख्या से] [२] एक गणिका की आस्था (वैदिक) दक्षिण भारत की एक सुप्रसिद्ध गणिका थी। अपार द्रव्य था उसके पास, परन्तु फिर भी मन में शान्ति नहीं थी। एक दिन उसके द्वार पर साधु आए। उसने सोचा- अवश्य किसी पुण्य-कर्म का उदय हुआ है मेरे जीवन में, अन्यथा वेश्या के द्वार पर साधु! कभी-कभी असम्भव भी घटित हो जाया करता है। भक्ति-भाव से परिपूर्ण हो उसने साधुओं को प्रणाम किया। वयोवृद्ध साधु ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, “नगर के मंदिर का निर्माणकार्य अपूर्ण है देवी! हम उसकी पूर्ति-हेतु अर्थ-संग्रह के प्रयोजन से निकले हैं। यदि तुम्हारी कुछ श्रद्धा हो तो तुम भी पुण्य-उपार्जन के इस अवसर से लाभ उठा सकती हो, भगवान् कृष्ण तुम्हारा कल्याण करें।" "अभी आई महाराज!'' गणिका उत्साह से भीतर गई और चांदी की थाली में स्वर्ण-मुद्रायें भर कर तत्काल लौट आई। थाली सन्तों के < जन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/228->c
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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