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________________ उपयुक्त अवसर पर कही बात ने मुनि के डगमगाते हुए कदम थाम लिए। उसके नेत्र आर्द्र हो गए। बोला- “तुम ठीक कहती हो कोशा! तुमने मुझे बचा लिया है।'' मैं स्थूलभद्र की बराबरी करने चला था। गुरु ने उनकी प्रशंसा अक्षरशः उचित की थी। मुझे क्षमा कर दो। अब मैं संयम में स्थिर हो गया। - चातुर्मासोपरान्त मुनि गुरु-चरणों में पहुंचा और अपनी ईर्ष्या के लिए क्षमा मांगते हुए बोला-गुरुदेव! स्थूलभद्र का कार्य निश्चित दुष्करातिदुष्कर था। सिंह को अहिंसक बनाना आसान है, परन्तु मन को विषयों से मुक्त करना सर्वाधिक कठिन है। स्थूलभद्र से प्राप्त अन्तर्योति से ज्योतित कोशा ने अनेक पतितों का उद्धार किया है। देखिए, उसी के जीवन का एक और ज्योतिर्मय चित्र राजनर्तकी होने के कारण कोशा ने अपने नियमों में आगार रखा था कि राजा द्वारा प्रेषित व्यक्ति को वह प्रसन्न करेगी। एक रथिक कोशा पर प्राणपण से मोहित था । एकदा युद्ध में उसकी वीरता से राजा अतिप्रसन्न हुए और उससे वर मांगने को कहा। रथिक ने कोशा से मिलने की आज्ञा मांगी। राजा ने उसकी मांग स्वीकार कर ली। रथिक कोशा के पास पहुंचा | राजाज्ञा-पत्र देखकर कोशा को उसका स्वागत करना पड़ा। रथिक ने कोशा को प्रभावित करने के लिए कला-प्रदर्शन किया। उसने सामने खड़े आम्रवृक्ष पर एक तीर छोड़ा। वह तीर आम्रफल में जा गड़ा। फिर दूसरा तीर छोड़ा। वह पहले तीर से जा चिपका। इस प्रकार तीर पर तीर छोड़कर अन्तिम तीर का छोर उस तक आ गया। उसने वहीं बैठे हुए आम तोड़ा। तीर समेटे । और आम्रफल कोशा को भेंट किया। - कोशा बोली-“ यह कोई विशेष कला नहीं है। कलाकार तो स्थूलभद्र है। कला तो कोई उससे सीखे । तुमने अपनी कला दिखाई। मैं भी अपनी छोटी-सी कला दिखाती हूं।' कोशा ने सरसों की भरी थाली मंगवाई। ढेर पर एक सूई गाड़ी। फिर वह नृत्य करने लगी। सूई पर नृत्य! न सूई हिली और न सरसों का एक दाना बिखरा। द्वितीय खण्ड/227
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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