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________________ मुनि कोशा के महल पर पहुंचे। कोशा का रूप मुनि के हृदय में कांटा बनकर चुभने लगा । निरन्तर निकटता से मुनि विचलित हो उठे। एक दिन उन्होंने कोशा से प्रणय निवेदन कर दिया। मुनि का निवेदन सुनकर कोशा को एक झटका लगा। मुनि और प्रणय निवेदन ! उसका जी चाहा कि वह उसे धक्के देकर निकाल दे। तभी उसे विचार आया- “कोशे ! यह मुनि तेरे गुरु स्थूलभद्र का गुरु भाई है । स्थूलभद्र ने तेरे भीतर ज्ञान की ज्योति जलाई है । गुरु के महान् ऋण से अंश मात्र उऋण होने का यह अवसर है। अपने गुरु के गुरुभाई को सन्मार्ग पर लाकर उसे पतन से बचा ।" कोशा बोली - " मुनिराज ! प्रेम परीक्षा चाहता है। मेरे लिए कुछ करो, तो ही तुम्हें मेरा प्रेम प्राप्त हो सकता है ।" “कहिए! क्या करूं?” मुनि बोला- “तुम्हारे एक इंगित पर मैं अपने प्राण न्योछावर कर सकता हूं।" "मुझे तुम्हारे प्राण नहीं चाहिए ।" कोशा बोली - "बस इतना कीजिए कि मेरे लिए एक रत्नकंबल ले आइए। नेपाल - नरेश भिक्षुओं को रत्नकंबल दान देते हैं। वहां से एक कंबल ले आइए।" मुनि-मर्यादाओं को ताक पर रखकर चातुर्मास के मध्य ही वह मुनि नेपाल पहुंचा। नरेश से रत्नकंबल प्राप्त किया और कोशा के पास लौटा। रत्नकंबल कोशा को भेंट करते हुए मुनि बोला- “कोशे ! अब तो मैं तुम्हारे प्रेम का अधिकारी हो गया हूं। प्रेम-परीक्षा मैंने उत्तीर्ण कर ली है । " कोशा ने रत्नकंबल लिया । बोली- मैं स्नान करके आती हूं। कोशा ने स्नान किया । अपने आर्द्र गात्र को रत्नकंबल से सुखाया और मुनि को दिखाते हुए उसे गंदी नाली में डाल दिया । कोशा के इस कृत्य पर मुनि रोषाण होते हुए बोला - "कोशा ! तुम कितनी मूर्ख हो! महामूल्यवान् रत्नकंबल तुमने गंदी नाली में डाल दिया । मेरी सारी मेहनत पर तुमने पानी फेर दिया । " "मुझसे बड़े मूर्ख तुम हो ।” कोशा ने क्रोध का अभिनय करते हुए कहा- "रत्नकंबल तो पुनः प्राप्त किया जा सकता है । परन्तु जिस संयम को तुम गंदी नाली में डालने को उद्यत हो, उसे प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है।” जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 226
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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