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________________ [१] राजनर्तकी रूपकोशा . रूपकोशा पाटलिपुत्र नगर की प्रसिद्ध राजनर्तकी थी। वह अनिंद्य सुन्दरी और अनेक कलाओं में प्रवीण थी। बड़े-बड़े धनी, सामंत और राजकुमार उसे पाने के लिए लालायित रहते थे। इस सब से आंख मूंदकर कोशा अपनी नृत्य-साधना में तल्लीन रहती थी। . पाटलिपुत्र-नरेश धननन्द के महामंत्री का नाम था- शकडाल । शकडाल जैन श्रावक थे। उनके दो पुत्र थे- स्थूलभद्र और श्रीयंक । स्थूलभद्र बाल्यकाल से ही विरक्तचेता थे। व्यावहारिक ज्ञान की सीख के लिए पिता शकडाल ने स्थूलभद्र को कोशा के पास भेजा। कोशा और स्थूलभद्र का यह साक्षात्कार घनिष्ठता में बदल गया। घनिष्ठता से प्रेम का जन्म हुआ।स्थूलभद्र सब कुछ भूलकर कोशा में खो गया । कोशा और स्थूलभद्र तथा स्थूलभद्र और कोशा- शेष सब शून्य हो गया उन दोनों के लिए। व स्थूलभद्र बारह वर्षों तक कोशा के महल में रहे । स्थूलभद्र के पिता महामंत्री शकडाल ने अपनी राजभक्ति को सिद्ध करने के लिए स्वयं का बलिदान कर दिया। राजा धननन्द ने महामंत्री पद के लिए स्थूलभद्र को आमंत्रित किया। स्थूलभद्र को पिता की महान् मृत्यु ने अन्तर हृदय तक हिला डाला। उन्होंने कोशा को अलविदा कहकर साधुजीवन अंगीकार कर लिया। कुछ वर्ष पश्चात् स्थूलभद्र ने गुरु-आज्ञा से कोशा के महल पर चातुर्मास किया। कोशा और स्थूलभद्र- अर्थात् योग और भोग में द्वन्द्व चला। भोग पराजित हुआ। स्थूलभद्र ने कोशा को सन्मार्ग पर ला दिया। वह श्राविका बन गई। स्थूलभद्र चातुर्मास समाप्त करके गुरु-चरणों में लौटे । गुरु ने उन्हें कण्ठ में लगाते हुए कहा- “वाह स्थूलभद्र! तुमने दुष्करातिदुष्कर कार्य किया है।' एक मुनि जो सिंह-गुफा पर चातुर्मास करके और उसे अहिंसक बनाकर लौटे थे, स्थूलभद्र की इस प्रशंसा को सहन न कर पाए। दूसरे वर्ष उन्होंने कोशा के महल पर चातुर्मास बिताने का संकल्प कर लिया। .. द्वितीय खण्ड/225
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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