________________
-भार्या (पत्नी)मनुष्य का आधा भाग है, वही सर्वश्रेष्ठ मित्र है, वही धर्म-अर्थ-काम पुरुषार्थों के साधन में मूल और वही मरणधर्मा व्यक्ति की मित्र है।
जहां तक जैन परम्पराका प्रश्न है, इसने भी वैदिक परम्परा की तरह, प्रारम्भ से ही नारी-जाति को महनीय स्थान दिया है। जैन सूक्ष्म चिन्तन तो यह रहा है कि एगा मणुस्स जाई (आचारांग नियुक्ति, 19) अर्थात मनुष्य-जाति एक ही है, उसमें नारी-पुरुष आदि का भेद नगण्य है। जैन आचार्यों ने व्यावहारिक जागत् में नर व नारी को समान महत्त्व दिया। तीर्थंकर भगवान् ने भी चतुर्विध धर्म-संघ की स्थापना में श्राविका व साध्वी इन दो संघों को भी स्थान देकर स्त्री-पुरुष की समकक्षता का ही समर्थन किया। नारी भी पुरुष की तरह मुक्ति-मार्ग की अधिकारिणी हो सकती है, इसीलिए सिद्धों के भेदों में 'स्त्री-सिद्ध' को भी परिगणित किया गया है (द्र. उत्तरा. 36/50)। इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम मोक्ष प्राप्त करने का सौभाग्य प्रथम तीर्थंकर की माता मरुदेवी को प्राप्त है (द. आवश्यक चूर्णि)। निष्कर्षतः मनुष्य-योनि में आकर जो कोई भी चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, धर्मश्रवण व श्रद्धा का संवर्धन करता हुआ समय में पुरुषार्थ करता है, वह क्रमश: कर्मरज को धुनता हुआ मुक्ति को प्राप्त करता है(द्र. उत्तरा. 3/11-12)।
किन्तु ऐतिहासिक क्रम में, दोनों ही परम्पराओं में, नारी की आदरणीय स्थिति घटती गई, जिसके कारण अशिक्षा व सामाजिक व राष्ट्रीय अशान्ति आदि रहे । सन्त तुलसीदास के युग में 'अधम ते अधम अधम अतिनारी' (रामचरित मानस, अरण्य. 34/2)हो गई।
यहां तक तो सामान्य नारी की स्थिति का निरूपण है। किन्तु, नीच आजीविका के कारण, जैसे कुछ वर्ग को तिरस्कृत समझा जाता है, उसी तरह स्त्री-जाति में भी कुछ वर्ग समाज द्वारा हीन दृष्टि से देखे जाते रहे हैं। किन्तु नीच से नीच मनुष्य भी, धर्माचरण कर अपने में पवित्रता का संचार कर धर्म-साधना का एवं मुक्ति पाने का प्रयास कर सकता है और सफल भी हो सकता है- यह भारतीय संस्कृति का चिन्तन रहा है।
। यहां हम नारी-जाति के निन्दनीय वर्ग 'गणिका' के विषय में विचार करना चाहेंगे। गणिका या वेश्या शब्द कानों में गुंजित होते ही व्यक्ति का मन सहसा घृणा भाव से भर जाता है। नारी के कई प्रशंसनीय रूप हैं
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/222