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अगली बाजी वे दोगुनी आशा से खेलते। परन्तु आशा तो छलना है और उसने युधिष्ठिर को इस कदर छला कि वे न केवल अपने राज्य को हार बैठे, अपितु अपने भाइयों, द्रौपदी और स्वयं को भी हार गए।
दुर्योधन के कपट-जाल की विजय हुई। अब वह मन-चाहा करने के लिए स्वतंत्र था। उसने भारतीय कुल-मर्यादाओं और मनुष्यता के साधारण नियमों को ताक पर रखते हुए द्रौपदी को दरबार में लाने का आदेश दिया।
- दुःशासन द्रौपदी के केशों से पकड़कर घसीटते हुए दरबार में लाया और दुर्योधन के इंगित पर उसकी साड़ी खींचने लगा। मर्यादाओं का आंचल तार-तार हो गया। द्रौपदी- एक भारतीय महाननारी-एक राजकूमारीएक महारानी भरे दरबार में एक-एक व्यक्ति को खोज कर उससे सहायता की भीख मांगने लगी। पांचों बलवान् पाण्डुपुत्रों और भीष्म जैसे महान् योद्धा उसकी रक्षा न कर सके। द्रौपदी विवश हो उठी। धर्म-कर्म और मर्यादाओं के जानकारों और रक्षकों की भीड़ में उसे कोई रक्षक न मिला। उस समय की स्थिति का चित्रण महर्षि व्यास ने महाभारत में इस प्रकार किया है- आकृष्यमाणो वसने द्रौपदयाश्चिन्तितो हरिः (महाभारत, सभापर्व, 68/41)- अर्थात् द्रौपदी ने अपने चीर-हरण के संकट में प्रभु का चिन्तन-स्मरण किया। द्रौपदी ने अपने परमाधार श्रीकृष्ण को पुकारा
"हे मधुसूदन! मेरी लाज की रक्षा करो। आज एक अबला की लाज यदि इस कौरव-सभा में लुट गई तो याद रखना! तुझे याद करने वाला कोई न रहेगा।"
निराधारों के आधार, अबलों के बल श्रीकृष्ण ने महासती द्रौपदी की तत्काल रक्षा की। धर्म की जय हुई, अधर्म परास्त हो गया।
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जीवन समस्याओं से, कष्टों से भरा होता है। कष्ट आते हैं तो मनुष्य अपने इष्ट देव को स्मरण करता है। प्रभु को स्मरण करने के अनेक साधन हैं-स्तुति, जप, भजन आदि । उपर्युक्त तीनों कथाओं के पात्रों के हृदय से अपजे इष्ट के लिए उठी पुकार उनके अन्तर्हृदय से उठी पुकार है। विश्रुत
द्वितीय खण्ड/219
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