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अपनी ही राज्यसभा में जब वस्त्र-हरण का अभिशाप उसे झेलना पड़ा, उस समय श्रीकृष्ण के रूप में उस सर्वशक्तिमान् अदृश्य शक्ति ने ही उसकी रक्षा की थी।
हस्तिनापुर-नरेश धृतराष्ट्र पुत्रमोह में अन्धे हो चुके थे कि कुलमर्यादा को ताक पर रखकर उन्होंने अपने अनुज-पुत्र युधिष्ठिर का हक़ अपने पुत्र दुर्योधन को दे दिया । संघर्ष चला । हस्तिनापुर स्वार्थ की वेदी पर चढ़कर दो हिस्सों में बंट गया। इस पर भी युधिष्ठिर के मन में मैल न था। उसने अपने भाइयों की सहायता से इन्द्रप्रस्थ नामक नगर बसाया। इन्द्रप्रस्थ का राजमहल अतीव भव्य था। इसी महल में दुर्योधन जल को थल समझकर गिर पड़ा तो द्रौपदी मुस्करा दी और बोली'अन्धे की अन्धी सन्तान'।
द्रौपदी के ये शब्द दुर्योधन के कानों में पिघले हुए शीशे की तरह उतर गए। उसने कठोर निश्चय कर लिया कि वह एक दिन द्रौपदी को सबक सिखाएगा।
राज्य-लिप्सा ने दुर्योधन को अन्धा बना दिया था। वह इन्द्रप्रस्थ को हड़पना चाहता था । युद्ध में वह पाण्डवों को हरा नहीं सकता था। अतः उसने कपट का आश्रय लिया। उसने पाण्डवों के पास द्यूतक्रीड़ा का प्रस्ताव भेजा। इस प्रस्ताव को युधिष्ठिर ने स्वीकार कर लिया। इस द्यूतक्रीड़ा का पितामह भीष्म आदि वृद्ध कुरूजनों ने अवश्य विरोध किया परन्तु तत्कालीन अभिशप्त राजसी पारम्परिक रीतियों के पालनार्थ युधिष्ठिर को विवशतया द्यूतक्रीड़ा में हिस्सा लेना पड़ा।
निश्चित समय पर पांचों पाण्डव हस्तिनापुर पहुंचे। द्रौपदी भी उनके साथ थी। दुर्योधन ने अपनी कपटलीला को आगे बढ़ाते हुए युधिष्ठिर की इस बात के लिए भी स्वीकृति ले ली कि दांव वह लगाएगा और उसकी ओर से पासे शकुनी फेकेंगा।
... द्यूत विनाश का मूल है। द्यूत वह अभिशाप है जो बड़े-बड़े राजाओं को दर-दर का भिखारी बना देता है। भारतीय कथा साहित्य में ऐसे अनेक कथानक हैं जो चूत के विनाशक परिणाम दर्शाते हैं।
दो सम्राटों-युधिष्ठिर और दुर्योधन के मध्य द्यूतक्रीड़ा प्रारंभ हुई। युधिष्ठिर बाजी दर बाजी हारते चले गए। प्रत्येक पराजय के पश्चात्
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/218)