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________________ में 'धम्मं शरणं गच्छामि' के साथ 'बुद्धं शरणं गच्छामि' भी बोला जाता है। जैन धर्म के उपदेशक तीर्थंकरादि तो वर्तमान में उपलब्ध हैं नहीं, इसलिए उनका स्मरण करके ही अपने हृदय में प्रतिष्ठापित किया जाना सम्भव है। जैन परम्परा में नवकार मंत्र (नमस्कार मंत्र) परम्परा से श्रद्धा से पढा, सुना एवं जपा जाता है। मंत्र तीर्थंकरादि पंच परमेष्ठियों (सर्वोत्तम प्रतिष्ठाप्राप्त व्यक्तित्वों) की स्मृति करा कर उनके प्रति वन्दना-नमन करने का प्रमुख साधन है। यहां यह उल्लेखनीय है कि तीर्थंकरादि के प्रति नमन व्यक्ति-पूजा नहीं है, अपितु उनके गुणों के माहात्म्य को स्वीकारते हुए, स्वयं में उन गुणों को अवतरित किये जाने की भावना से किया गया विनय-प्रदर्शन है। इसलिए कहा गया है वन्दे तद्गुणलब्धये। __(तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण) - हम प्रभु को वन्दन करते हैं ताकि उनके गुण हमें प्राप्त हों, हम उन जैसे गुण-सम्पन्न बन जाएं। उक्त नमस्कार मंत्र के माध्यम से तीर्थंकरादि के साथ की गई श्रद्धा-पूर्वक एकाग्रता जो की जाती है, वह आराधक व आराध्य की एकात्मता को स्थापित करती है। जैनाचार्य पूज्यपाद ने कहा है- यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते (समाधिशतक-95)। अर्थात् जिस आराध्य का श्रद्धापूर्वक स्मरण, ध्यान आदि किया जाता है, चित्त उसी में लीन हो जाता है, आराध्यरूप ही हो जाता है। परमात्मा के साथ ही एकाग्रता उच्च स्थिति में शुक्ल ध्यान की उत्कृष्ट परिणति बन जाती है और व्यक्ति स्वयं परमात्मा बन जाता है। प्रभु-वन्दना से प्रशस्त कर्मों का बन्धन होता है और सौभाग्य आदि शुभ फल स्वतः प्रकट होते जाते हैं वन्दणएणं नीयागोयं कम्म खवेइ। उच्चागोयं निबन्धइ। सोहग्गं च... निव्वत्तेइ (उत्तरा. सू. 29/11)। अर्थात् वन्दना से व्यक्ति नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्च गोत्र का बन्ध करता है। वह अप्रतिहत (अखण्ड) सौभाग्य आदि प्राप्त करता है। जैन आचार्य ने प्रभु-स्तुति करते हुए कहा है- जिनेन्द्र गुणसंस्तुतिस्तव मनागपि प्रस्तुता, भवत्यखिलकर्मणां प्रहतये परं कारणम् (पात्रकेसरिस्तोत्र,1)। अर्थात् हे जिनेन्द्र! तुम्हारे गुणों की स्तुति थोड़ी-सी भी की जाय तो वह समस्त कर्मों का विनाश कर देती है। आचार्य भद्रबाहु ने 'उपसर्गहार अथात् वन्दना स जैन धर्म पदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता/2125
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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