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इसी प्रसंग में भगवान् महावीर की उक्ति भी चरितार्थ होती है- 'कम्मे सूरा से धम्मे सूरा' अर्थात् जो सांसारिक कर्मों में शूर-वीर हैं, वे ही सत्संगति पाकर धर्मकार्यों में भी शूरवीर हो सकते हैं, धर्मात्माओं में भी अग्रणी हो सकते हैं। भारतीय संस्कृति के उक्त चिरन्तन सत्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति उपर्युक्त कथानकों में हुई है। सभी धर्मों में, धार्मिक परम्पराओं में उक्त सत्य को अंगीकार किया गया है, इसीलिए 'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं' यह मान्यता सर्वमान्य बन गई है।
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निस्सन्देह प्रत्येक व्यक्ति में अमर उज्ज्वल आत्म-ज्योति विद्यमान रहती है, किन्तु कर्मों के कारण वह ज्योति आवृत हो है और अपना तेजस्वी रूप प्रकट नहीं कर पाती। वही आवरण जब सत्संग के प्रभाव से दूर होता है तब निष्कलुष शुद्ध आत्मा की ज्योति को अभिव्यक्त होने से कोई नहीं रोक सकता । उपर्युक्त कथानकों के माध्यम से यह सत्य स्वतः हृदयंगम हो जाता है ।
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता 210